________________
257
गाथा २३. २५
जाननेवाले अज्ञानीजन भेदविज्ञान के अभाव में दोनों की भिन्न पहिचान नहीं कर पाते हैं और पुद्गल में अपनापन स्थापित कर लेते हैं।
खारा पानी जमकर नमक बन जाता है और वह नमक घुलकर पानी हो जाता है; क्योंकि प्रवाहीपन और नमक के खारेपन का एकसाथ रहने में कोई विरोध नहीं है; परन्तु आत्मा चेतन है और पुद्गल अचेतन है तथा चेतन और अचेतन का एकसाथ होने में प्रकाश और अंधकार के समान प्रत्यक्ष विरोध है। अत: पुद्गल को आत्मा और आत्मा को पुद्गल नहीं माना जा सकता है।
ऐसी स्थिति में पुद्गलद्रव्य को अपना कहना युक्तिसंगत नहीं है, शास्त्रसंमत भी नहीं है; अपितु प्रत्यक्षादि प्रमाणों से असिद्ध है, विरुद्ध है। इसलिए पुद्गलद्रव्य में अपनापन स्थापित करना अज्ञान है, मिथ्यात्व है, अनंतसंसार का कारण है। ___ आचार्य अमृतचन्द्र इस गाथा की आत्मख्याति नामक टीका में पुद्गल का लक्षण अनुपयोग बताते हैं । इसका रहस्य उद्घाटित करते हुए स्वामीजी समझाते हैं - ___ "यहाँ पुद्गल का अर्थ जड़ (स्पर्श, रस, गंध, वर्णवाला पुद्गल) नहीं; अपितु अन-उपयोगस्वरूप दया, दान, व्रतादिक परिणाम हैं । ये स्वयं को अथवा पर को नहीं जानते; इसकारण इन्हें जड़, अचेतन या पुद्गल कहा है। ये रागादि परिणाम चैतन्य - उपयोगस्वरूप से भिन्न चीज हैं।
यहाँ कहते हैं कि भगवान ने तो तुझे उपयोगस्वरूप देखा है, पर तू यह झूठी मान्यता कहाँ से लाया कि मैं तो रागस्वरूप हूँ। वर्तमान पर्याय ने उपयोग में दया, दान, व्रतादि के राग को लक्ष्य में लेकर 'यह राग मेरा अस्तित्व' - ऐसा माना तो यह तो पुद्गल का ही अनुभव हुआ, भगवान आत्मा का अनुभव तो रह ही गया।' १. प्रवचनरत्नाकर (हिन्दी) भाग १, पृष्ठ ३६०