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समयसार अनुशीलन
भिन्न नवपदार्थों को जाने और शुद्धनय से आत्मा को न जाने तबतक पर्यायबुद्धि है । "
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उक्त सम्पूर्ण कथन से यह निष्कर्ष निकलता है कि नवतत्त्वों में भी सर्वत्र एक जीवतत्त्व ही प्रकाशमान है और शुद्धनय से उसे जानना ही भूतार्थनय से जाने हुए नवतत्त्व हैं, जिन्हें सम्यग्दर्शन कहा गया है ।
अब इसी अर्थ को पुष्ट करनेवाला कलश लिखते हैं और उसमें प्रेरणा देते हैं कि हे भव्यजनो ! तुम तो नवतत्त्वों में प्रकाशमान एक आत्मज्योति को ही देखो।
( मालिनी )
चिरमिति नवतत्त्वच्छन्नमुन्नीयमानं,
कनकमिव निमग्नं वर्णमालाकलापे । अथ सततविविक्तं दृश्यतामेकरूपं,
प्रतिपदमिदमात्मज्योतिरुद्योतमानम् ॥ ८ ॥ ( रोला )
शुद्धकनक ज्यों छिपा हुआ है बानभेद में । नवतत्त्वों में छिपी हुई त्यों आत्मज्योति है ॥ एकरूप उद्योतमान पर से विविक्त वह ।
अरे भव्यजन ! पद-पद पर तुम उसको जानो ॥ ८ ॥ जिसप्रकार वर्णों के समूह में छिपे हुए एकाकार स्वर्ण को बाहर निकालते हैं; उसीप्रकार नवतत्त्वों में बहुत समय से छिपी हुई यह आत्मज्योति शुद्धनय के द्वारा बाहर निकालकर प्रगट की गई है और यह आत्मज्योति पद-पद पर अर्थात् प्रत्येक पर्याय में चित्-चमत्कारमात्र एकरूप में उद्योतमान है । इसलिए हे भव्यजीवो ! तुम इसे सदा ही अन्यद्रव्यों एवं उनके आश्रय से होनेवाले नैमित्तिकभावों से भिन्न एकरूप देखो।