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गाथा १३
भावपुण्यादि जीव के विकार हैं और जीव के विकार के निमित्त द्रव्यपुण्य-पापादि अजीव हैं । जीवद्रव्य के स्वभाव को छोड़कर एक द्रव्य की पर्यायों के रूप में अनुभव करने पर ये नवतत्त्व भूतार्थ हैं; सत्यार्थ हैं और सर्वकाल में अस्खलित एक जीवद्रव्य के स्वभाव के समीप जाकर अनुभव करने पर वे नवतत्त्व अभूतार्थ हैं, असत्यार्थ हैं। इसलिए इन नवरत्नों में भूतार्थनय से एक जीव ही प्रकाशमान है।
इसप्रकार भूतार्थनय से जाने हुए नवतत्त्वों में भी एकप्रकार से एकमात्र परमपारिणामिकभावरूप शुद्ध जीवतत्त्व ही जाना गया है और यह जाना जाना ही आत्मख्याति है, आत्मानुभूति है, निश्चयसम्यग्दर्शन है। अत: इस कथन में कोई दोष नहीं है कि भूतार्थनय से जाने हुए नवतत्त्व ही सम्यग्दर्शन हैं।
उक्त कथन का भाव स्पष्ट करते हुए भावार्थ में पण्डित जयचंदजी छाबड़ा लिखते हैं -
"इन नवतत्त्वों में, शुद्धनय से देखा जाये तो जीव ही एक चैतन्यचमत्कारमात्र प्रकाशरूप प्रगट हो रहा है, इसके अतिरिक्त भिन्न-भिन्न नवतत्त्व कुछ भी दिखाई नहीं देते। जबतक इसप्रकार जीवतत्त्व की जानकारी जीव को नहीं है तबतक वह व्यवहारदृष्टि है, भिन्न-भिन्न नवतत्त्वों को मानता है । जीव-पुद्गल की बन्धपर्यायरूप दृष्टि से यह पदार्थ भिन्न-भिन्न दिखाई देते हैं; किन्तु जब शुद्धनय से जीव-पुद्गल का निजस्वरूप भिन्न-भिन्न देखा जाये तब वे पुण्य-पापादि सात तत्त्व कुछ भी वस्तु नहीं हैं; वे निमित्त-नैमित्तिक भाव से हुए थे; इसलिए जब वह निमित्त-नैमित्तिक भाव मिट गया, तब जीव, पुद्गल भिन्नभिन्न होने से अन्य कोई वस्तु (पदार्थ) सिद्ध नहीं हो सकती। वस्तु तो द्रव्य है और द्रव्य का निजभाव द्रव्य के साथ ही रहता है तथा निमित्त-नैमित्तिक भाव का अभाव ही होता है, इसलिए शुद्धनय से जीव को जानने से ही सम्यग्दर्शन की प्राप्ति हो सकती है । जबतक भिन्न