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समयसार गाथा १९
यदि ऐसा है तो यह आत्मा कबतक अप्रतिबुद्ध रहेगा, अज्ञानी रहेगा; ऐसा प्रश्न उपस्थित होने पर उसके उत्तरस्वरूप आगामी गाथा का उदय हुआ है ।
कम्मे णोकम्मम्हि य अहमिदि अहकं च कम्म णोकम्मं । जा एसा खलु बुद्धी अप्पडिबुद्धो हवदि ताव ॥ १९ ॥ ( हरिगीत )
मैं कर्म हूँ नोकर्म हूँ या हैं हमारे ये सभी ।
यह मान्यता जबतक रहे अज्ञानि हैं तबतक सभी ॥ १९ ॥ जबतक यह आत्मा ज्ञानावरणी आदि द्रव्यकर्मों, मोह राग द्वेषादि भावकर्मों एवं शरीरादि नोकर्मों में अहंबुद्धि रखता है, ममत्वबुद्धि रखता है; यह मानता रहता है कि 'ये सभी मैं हूँ और मुझमें ये सभी कर्म - नोकर्म हैं जबतक अप्रतिबुद्ध रहता है, अज्ञानी रहता है । तात्पर्य यह है कि कर्म - नोकर्म में अहंबुद्धि एवं ममत्वबुद्धि ही अज्ञान है ।
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अहंबुद्धि को एकत्वबुद्धि एवं ममत्वबुद्धि को स्वामित्वबुद्धि भी कहते हैं ।
परपदार्थों और उनके निमित्त से होनेवाले विकारीभावों में अहंबुद्धि, ममत्वबुद्धि, कर्तृत्वबुद्धि एवं भोक्तृत्वबुद्धि ही अज्ञान है, अप्रतिबुद्धता है ।
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'ये ही मैं हूँ' इसप्रकार की मान्यता का नाम अहंबुद्धि है, एकत्वबुद्धि है और 'ये मेरे हैं, मैं इनका हूँ' - इसप्रकार की मान्यता का नाम ममत्वबुद्धि है, स्वामित्वबुद्धि है । इसीप्रकार 'मैं इनका कर्ता हूँ, ये मेरे कर्त्ता हैं' - इसप्रकार की मान्यता का नाम कर्तृत्वबुद्धि है