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समयसार अनुशीलन
अरे भाई, तुमने अनादि से आज तक परपदार्थों में ही अपनापन स्थापित किया है, निजभगवान आत्मा को कभी जाना ही नहीं; इसकारण अनंत दुःख उठाये हैं । फिर भी उन्हीं परपदार्थों से एकत्व स्थापित किये हो और अनन्त दुःखी हो रहे हो । अरे भाई, अब तो इस एकत्व के मोह को छोड़ो और अपने त्रिकाली ध्रुव भगवान आत्मा में एकत्व स्थापित करो ।
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शरीरादि परपदार्थों में, रागादि विकारी भावों में एकत्व स्थापित करना ही दर्शनमोह है, मिथ्यात्व है। यहाँ उस एकत्व छोड़ने की ही प्रेरणा दी जा रही है ।
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इस कलश की महिमा से विभोर होते हुए स्वामीजी कहते हैं अहो । अमृतचन्द्राचार्य के कलश बहुत गंभीर हैं। टीका भी बहुत गंभीर है। जिसप्रकार ग्वाला गाय के स्तनों में से दोहन करके दूध निकालता है, उसीप्रकार शास्त्रों में भरे हुयें भावों को अमृतचन्द्र ने तर्क की ताकत लगाकर निकाला है और टीका में भर दिया है ।
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भगवान आत्मा ज्ञानस्वरूप है और राग अचेतन है। चाहे दया, दान, व्रतादि का विकल्प हो या गुण-गुणी के भेद का विकल्प हो; ये सब विकल्प अचेतन है; इनमें ज्ञानस्वभाव की किरण नहीं हैं। इसलिए उस राग का स्वाद छोड़कर इस ज्ञानस्वरूप आत्मा को आस्वादो । भगवान आत्मा में आनन्द का स्वाद है । अनादिकाल से राग का स्वाद लिया, वह दुःख का, आकुलता का स्वाद था; उसमें कुछ नया नहीं है। यदि कुछ नया करना हो तो ज्ञान को आस्वादो । - ऐसा कहते हैं । "
इसप्रकार इस कलश में पर के साथ एकत्व के मोह को तोड़ने एवं अपने में एकत्व स्थापित करने की प्रेरणा देकर आचार्यदेव अब आगामी गाथा में तर्क से, युक्ति से इसी बात को समझाते हैं ।
१. प्रवचनरत्नाकर (हिन्दी) भाग १, पृष्ठ ३४८