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गाथा १९
और मैं इनका भोक्ता हूँ, ये मेरे भोक्ता हैं - इसप्रकार की बुद्धि का नाम भोक्तृत्वबुद्धि है ।
इनमें कर्तृत्वबुद्धि और भोक्तृत्वबुद्धि का निषेध तो कर्ता-कर्म अधिकार में किया जायगा; यहाँ तो एकत्वबुद्धि और ममत्वबुद्धि के सन्दर्भ में ही विचार अपेक्षित है । यही कारण है कि इस १९वीं गाथा में अज्ञानी का स्वरूप स्पष्ट करते हुए कहा जा रहा है कि जबतक शरीरादि नोकर्म एवं ज्ञानावरणादि द्रव्यकर्मरूप परपदार्थों एवं द्रव्यकर्मों के उदय से अपनी आत्मा में उत्पन्न होनेवाले विकारीभावों में अहंबुद्धि रहेगी, ममत्वबुद्धि रहेगी, तबतक आत्मा अज्ञानी रहेगा।
आगे कर्ता-कर्म अधिकार में ७५वीं गाथा में कहा जायगा कि कर्म के परिणाम को और नोकर्म के परिणाम को जो कर्ता नहीं है, मात्र जानता है, वह ज्ञानी है ।
यहाँ अज्ञानी की परिभाषा बताई जा रही है और वहां ज्ञानी की परिभाषा बताई जावेगी ।
यदि दोनों को मिलाकर बात कहें तो इसप्रकार कह सकते हैं कि जो कर्म में और नोकर्म में तथा कर्म के उदय में होनेवाले अपने विकारी परिणामों में अहंबुद्धि, ममत्वबुद्धि, कर्तृत्वबुद्धि और भोक्तृत्वबुद्धि रखता है, वह अज्ञानी है और जो व्यक्ति इनमें अहंबुद्धि, ममत्वबुद्धि, कर्तृत्वबुद्धि और भोक्तृत्वबुद्धि नहीं रखता है; किन्तु मात्र उन्हें जानता है, वह ज्ञानी है ।
इस १९वीं गाथा पर आचार्य अमृतचन्द्र द्वारा लिखित आत्मख्याति टीका पर विचार करने के पूर्व जयचन्दजी छाबड़ा का भावार्थ देख लेना उपयोगी रहेगा; क्योंकि पहले उसके अध्ययन से विषयवस्तु को समझने में विशेष सुविधा रहेगी। वह भावार्थ इसप्रकार है
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' जैसे स्पर्शादि में पुद्गल का और पुद्गल में स्पर्शादि का अनुभव होता है अर्थात् दोनों एकरूप अनुभव में आते हैं; उसीप्रकार जबतक