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समयसार अनुशीलन
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आत्मा को, कर्म और नोकर्म में आत्मा की और आत्मा में कर्म नोकर्म की भ्रान्ति होती है; अर्थात् दोनों एकरूप भासित होते हैं; तबतक तो वह अप्रतिबुद्ध है; और जब वह यह जानता है कि आत्मा तो ज्ञाता ही है और कर्म-नोकर्म पुद्गल के ही हैं; तभी वह प्रतिबुद्ध होता है ।
जैसे दर्पण में अग्नि की ज्वाला दिखाई देती है ; वहाँ यह ज्ञात होता है कि 'ज्वाला तो अग्नि में ही है, वह दर्पण में प्रविष्ट नहीं है; और जो दर्पण में दिखाई दे रही है, वह दर्पण की स्वच्छता ही है।' इसीप्रकार 'कर्म-नोकर्म अपने आत्मा में प्रविष्ट नहीं हैं ; आत्मा की ज्ञानस्वच्छता ही ऐसी है कि जिसमें ज्ञेय का प्रतिबिम्ब दिखाई दे; इसीप्रकार कर्मनोकर्म ज्ञेय हैं, इसलिए वे प्रतिभासित होते हैं ' - ऐसा भेदज्ञानरूप अनुभव आत्मा को या तो स्वयंमेव हो अथवा उपदेश से हो, तभी वह प्रतिबुद्ध होता है।"
उक्त भावार्थ में दो बातें स्पष्ट की हैं -
(१) जिसप्रकार पुद्गलद्रव्य और उसके स्पर्शादि गुण हमें एक ही लगते हैं; क्योंकि हमें पुद्गल में स्पर्शादि का और स्पर्शादि में पुद्गल का अनुभव होता है। उसीप्रकार कर्म-नोकर्म और आत्मा में भी हमें एकत्व की भ्रान्ति होती है, वे दोनों एक ही लगते हैं। जबतक यह भ्रान्ति रहेगी, तबतक आत्मा अप्रतिबुद्ध रहेगा। किन्तु जब आत्मा यह जान लेता है कि आत्मा और कर्म-नोकर्म भिन्न-भिन्न हैं ; क्योंकि आत्मा तो ज्ञाता, चेतनद्रव्य है और कर्म-नोकर्म पुद्गल हैं, अचेतन हैं; तब प्रतिबुद्ध हो जाता है।
इसप्रकार कर्म-नोकर्म में एकत्वबुद्धि अप्रतिबुद्धता है, अज्ञान है, और भगवान आत्मा को इनसे भिन्न जानना प्रतिबुद्धता है, ज्ञान है।
(२) जिसप्रकार दर्पण में जो ज्वाला दिखती है, वह अग्नि की नहीं, दर्पण की ही स्वच्छता है; क्योंकि अग्नि - ज्वाला तो दर्पण में प्रविष्ट ही नहीं हुई है, वह तो अग्नि में ही हैं।