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आवश्यक है; फिर भी कभी - कभी ऐसा होता है कि किसी जीव को देशनालब्धि पूर्वभव में या बहुत पहले प्राप्त हुई हो और उस समय उसने पुरुषार्थ न कर पाया हो; इसकारण सम्यग्दर्शन की प्राप्ति भी उसे न हो पाई हो; बाद में बहुतकाल बाद या अगले भव में वह पुरुषार्थ करे और सम्यग्दर्शन की प्राप्ति कर ले तो उसे निसर्गज सम्यग्दर्शन कहेंगे । तत्काल देशना का अभाव होने से उसे निसर्गज कहते हैं, पहले तो देशना की प्राप्ति हुई ही थी। देशना मिले और अल्पसमय में ही, उसी भव में ही पुरुषार्थ करके सम्यग्दर्शन प्राप्त कर ले तो उसे अधिगमज सम्यग्दर्शन कहते हैं ।
अनादि से तो जीव अज्ञानी ही है, मिथ्यादृष्टि ही है; अत: जबतक उसने सम्यग्दर्शन की प्राप्ति नहीं की; तबतक अज्ञानी ही रहता है; ज्ञान के साथ तादात्म्य होने से वह ज्ञानी नहीं हो जाता ।
देखो उक्त सन्दर्भ में स्वामीजी क्या कहते हैं
"कैसी गजब की बात है कि आत्मा ज्ञान के साथ तादात्म्यरूप से है, तथापि एक क्षणमात्र भी ज्ञान का सेवन नहीं करता अर्थात् 'ज्ञान ही आत्मा है' – पर्याय में ऐसी एकता नहीं करता; इसकारण ज्ञान का सेवन नहीं करता । '
कलश २०
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पर्याय को अन्तर्मुखी करके 'ज्ञान ही आत्मा है ' ऐसा उसके स्वरूप में एकाग्र होकर उसे जाने तो इसने ज्ञान की सेवा की ऐसा माना जाता है । इसके सिवा सब राग की ही सेवा है; आत्मा की सेवा नहीं ।"
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१. प्रवचनरत्नाकर (हिन्दी) भाग १, पृष्ठ ३१३ २ . वही,
पृष्ठ ३१४
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अतः यह सुनिश्चित है कि ज्ञान के साथ तादात्म्य संबंध होने पर भी जबतक यह आत्मा अनुभूतिस्वरूप भगवान आत्मा को जानकर, उसमें अपनत्व स्थापित नहीं करता; तबतक अज्ञानी ही रहता है । '