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गाथा १४
इसीप्रकार नर-नारकादि पर्यायों से आत्मा का अनुभव करने पर अन्यत्व भूतार्थ है, सत्यार्थ है; तथापि सर्वतः अस्खलित (सर्वपर्याय भेदों से किंचित्मात्र भेदरूप न होनेवाले) एक चैतन्याकार आत्मस्वभाव के समीप जाकर अनुभव करने पर अन्यत्व अभूतार्थ है, असत्यार्थ है। __ (३) जिसप्रकार समुद्र का वृद्धि-हानिरूप अवस्था से अनुभव करने पर अनियतता भूतार्थ है, सत्यार्थ है; तथापि समुद्र के नित्य स्थिरस्वभाव के समीप जाकर अनुभव करने पर अनियतता अभूतार्थ है, असत्यार्थ है।
इसीप्रकार आत्मा का वृद्धि-हानिरूप पर्यायभेदों से अनुभव करने पर अनियतता भूतार्थ है, सत्यार्थ है ; तथापि नित्य स्थिर आत्मस्वभाव के समीप जाकर अनुभव करने पर अनियतता अभूतार्थ है, असत्यार्थ है।
(४) जिसप्रकार सोने का चिकनापन, पीलापन, भारीपन इत्यादि गुणरूप भेदों से अनुभव करने पर विशेषता भूतार्थ है; तथापि जिसमें सर्वविशेष विलय हो गए हैं – ऐसे सुवर्णस्वभाव के समीप जाकर अनुभव करने पर विशेषता अभूतार्थ है, असत्यार्थ है।
इसीप्रकार आत्मा का ज्ञान, दर्शन आदि गुणरूप भेदों से अनुभव करने पर विशेषता भूतार्थ है, सत्यार्थ है; तथापि जिसमें सर्व विशेष विलय हो गये हैं – ऐसे आत्मस्वभाव के समीप जाकर अनुभव करने पर विशेषता अभूतार्थ है, असत्यार्थ है।
(५) जिसप्रकार अग्नि जिसका निमित्त है - ऐसी उष्णता के साथ संयुक्ततारूप - तप्ततारूप अवस्था से जल का अनुभव करने पर जल की उष्णतारूप संयुक्तता भूतार्थ है, सत्यार्थ है; तथापि एकान्त शीतलतारूप जलस्वभाव के समीप जाकर अनुभव करने पर उष्णता के साथ जल की संयुक्तता अभूतार्थ है, असत्यार्थ है।