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गाथा १४
अतः आत्मा को नर-नारकादि पर्यायों में विभक्त करके अन्य अन्य देखना वीतरागभाव के लिए उपयुक्त नहीं है, अपितु नर-नारकादि पर्यायों में समानरूप से समाहित अनन्य एकरूप देखना ही वीतरागभाव के लिए उपयुक्त है ।
(३) नियत विशेषण के माध्यम से यह स्पष्ट किया गया है कि शुद्धनय के विषयभूत भगवान आत्मा में, दृष्टि के विषय में षट्गुणी हानि - वृद्धिरूप पर्यायें तथा निरन्तर घटना - बढ़ना है स्वभाव जिनका ऐसी औपशमिकभाव, क्षायोपशमिकभावरूप पर्यायें और क्षायिकभावरूप पर्यायें भी नहीं है । समुद्र के उदाहरण से इस बात को स्पष्ट किया गया है ।
यद्यपि समुद्र में भी ज्वार-भाटे आते हैं, उसमें भी वृद्धि हानि होती है; तथापि समुद्र अपनी मर्यादा को कभी नहीं छोड़ता । यदि समुद्र अपनी मर्यादा छोड़ने लगे तो लोक में प्रलय हो जावेगा। छोटी-बड़ी नदियों में जब बाढ़ आती है तो उसके किनारे बसे बड़े-बड़े नगर एवं गाँव उजड़ जाते हैं, हाहाकार मच जाता है, यदि समुद्र में बाढ़ आने लगे तो क्या होगा ? समुद्र के किनारे बम्बई जैसे बहुमंजिली नगर बसे हुए हैं, किसी को यह चिन्ता नहीं होती कि यदि समुद्र में बाढ़ आ गई तो क्या होगा ? सभी को समुद्र के इस स्वभाव की भली-भाँति खबर है, इसीकारण सभी निश्चित रहते हैं । वे यह अच्छी तरह जानते हैं कि समुद्र भी घटता-बढ़ता है, पर अपनी मर्यादा में ही रहता है । अतः कोई चिन्ता की बात नहीं है । समुद्र के नियतस्वभाव के भरोसे ही समुद्र के किनारे इस नगरीय सभ्यता का विकास हो रहा है ।
जिसप्रकार समुद्र में आनेवाले ज्वार-भाटे की ओर से समुद्र को देखें तो वह घटता भी है और बढ़ता भी है, और उसका यह घटनाबढ़ना इस दृष्टि से भूतार्थ ही है, सत्यार्थ ही है; क्योंकि इस दृष्टि से समुद्र का स्वभाव अनियत ही है; तथापि यदि समुद्र को उसके