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समयसार अनुशीलन
( रोला ) अपने बल से मोह नाशकर भूत भविष्यत्।
वर्तमान के कर्मबंध से भिन्न लखे बुध ॥ तो निज अनुभवगम्य आत्मा सदा विराजित।
विरहित कर्मकलंकपंक से देव शाश्वत ॥ १२ ।। यदि कोई बुद्धिमान सम्यग्दृष्टि धर्मात्मा जीव अपने आत्मा को भूत, वर्तमान और भविष्य काल संबंधी कर्मों के बंध से भिन्न करके देखे, बद्धस्पृष्टादि भावों के प्रति एकत्व के मोह को अपने पुरुषार्थ से बलपूर्वक दूर करके अंतरंग में देखे तो अनुभवगम्य महिमा का धारक यह निजभगवान आत्मा कर्मकंलकरूपी कीचड़ से अलिप्त, निश्चल, नित्य, शाश्वत स्वयं देवाधिदेव के रूप में ही दिखाई देता है; क्योंकि शुद्धनय का विषयभूत निजभगवान आत्मा तो सदा ही देहदेवल में बद्धस्पृष्टादिभावों से रहित विराजमान है। इस कलश का भावानुवाद नाटक समयसार में इसप्रकार किया गया है -
( सवैया इकतीसा ) कोऊ बुद्धिवंत नर निरखै सरीर-घर,
भेदग्यानदृष्टि सौं विचारै वस्तु-वास तौ। अतीत अनागत वरतमान मोहरस,
भीग्यौ चिदानंद लखै बंध मैं विलासतौ। बंधकौ विदारि महा मोह को सुभाउ डारि,
आतमा को ध्यान करै देखै परगासतौ। करम-कलंक-पंकरहित प्रगटरूप,
___ अचल अबाधित विलोकै देव सासतौ॥ कोई बुद्धिमान व्यक्ति देहदेवल में विराजमान आत्मा को देखें और भेदज्ञान की दृष्टि से वस्तुस्वरूप का विचार करें तो भूत, वर्तमान और भविष्यकालीन मोहरस में भींगे तथा बंध में विलास करते हुए आत्मा का निश्चय करके बंध का विदारण और मोह के निवारण पूर्वक आत्मा को देखते हुए आत्मा का ध्यान करे तो यह आत्मा निज को