________________
समयसार अनुशीलन
190 गाथा के उत्तरार्द्ध को मुख्य बनाकर यह स्पष्ट करने का प्रयास किया है कि शुद्धनय के विषयभूत आत्मा को जानने से सर्वश्रुत किसप्रकार जान लिया जाता है।
सम्पूर्ण जिनागम का एकमात्र मूल प्रतिपाद्य शुद्धनय का विषयभृत यह भगवान आत्मा ही है । अथवा यह भी कह सकते हैं कि जिनशासन का प्रतिपादन केन्द्रबिन्दु शुद्धनय का विषयभूत यह अबद्धस्पृष्ट, अनन्य, नियत, अविशेष और असंयुक्त भाववाला भगवान आत्मा ही है; क्योंकि सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्ररूप मोक्षमार्ग इसी भगवान आत्मा के आश्रय से होता है।
उक्त संदर्भ में "तीर्थंकर महावीर और उनका सर्वोदयतीर्थ' का निम्नांकित कथन द्रष्टव्य है -
"भगवान महावीर के उपदेशों का केन्द्रबिन्दु आत्मा है। अत: आत्मतत्त्व के प्रतिपादन के लिए परद्रव्यों का जितना और जो कथन आवश्यक है, उतना और वही कथन उनकी वाणी में मुख्यरूप से आया है । जीव का प्रतिपादन तो जीव के समझने के लिए है ही, किन्तु अजीव द्रव्यों का प्रतिपादन भी जीव (आत्मा) को समझने के लिए ही है; क्योंकि आत्मा का हित तो आत्मा के जानने में है।
पर को मात्र जानना है और अपने जीव को जानकर उसमें जमना है, रमना है। पर को जानकर उससे हटना है और जीव को अर्थात् स्वजीव को जानकर उसमें डटना है। पर को जानकर उसे छोड़ना है और स्व को जानकर उसे पकड़ना है, जकड़ना है।
तीर्थंकर महावीर की प्रतिपादन शैली की यह मुख्य पकड़ है। इसे जाने बिना उनके प्रतिपादन के निष्कर्ष बिन्दु को पकड़ पाना संभव नहीं है।"
१. तीर्थंकर महावीर और उनका सर्वोदयतीर्थ, पृष्ठ ९४