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गाथा १६
ध्यान रहे, अभेद को एक और अमेचक भी कहा जाता है और भेद को अनेक और मेचक भी कहा जाता है । इसप्रकार अभेद, अमेचक, एकाकार आत्मा की आराधना निश्चय आराधना है और भेद, मेचक और अनेकाकार आत्मा की आराधना व्यवहार आराधना है ।
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दर्शन - ज्ञान चारित्र - ये तीन हैं, अतः अनेक हैं, अनेकाकार हैं, मेचक हैं, भेद हैं; अत: इनकी उपासना को व्यवहारोपासना कहा जाता है। शुद्धनय का विषयभूत भगवान आत्मा एक है, एकाकार है, अभेद है, अमेचक है; अतः उसकी उपासना को निश्चयोपासना कहा गया है ।
यहाँ अनेकाकार होना, मेचक होना ही अशुद्धि है, मलिनता है और एकाकार होना, अमेचक होना ही शुद्धि है, निर्मलता है । अत: एक आत्मा की उपासना शुद्धनय है और दर्शन - ज्ञान - चारित्र की उपासना अशुद्धनय है । यहाँ इससे अधिक और कुछ नहीं है ।
प्रश्न
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- जब आत्मा की आराधना और दर्शन - ज्ञान - चारित्र की आराधना एक ही बात है तो फिर दोनों में से एक को शुद्ध कहना और दूसरे को अशुद्ध कहना कहाँ तक उचित है?
उत्तर - अरे भाई, इसमें कुछ भी अनुचित नहीं हैं; क्योंकि यहाँ अभेद को शुद्धि और भेद को अशुद्धि कहना ही अभीष्ट है ।
प्रश्न – ऐसा क्यों है ?
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उत्तर – इसलिए कि भेद के लक्ष्य से विकल्पों की उत्पत्ति होती है और अभेद के लक्ष्य से विकल्पों का शमन होकर निर्विकल्प दशा उत्पन्न होती है। आत्मा का अनुभव निर्विकल्प दशा में ही होता है । सम्यग्दर्शन- - ज्ञान - चारित्र की उत्पत्ति भी निर्विकल्प दशा में ही होती है । हाँ, इनकी सत्ता विकल्पात्मक दशा में भी रह सकती है, पर उत्पत्ति विकल्पात्मक दशा में नहीं हो सकती हैं ।