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दिखाई देता है, तब साध्य की सिद्धि होती है और उसके अतिरिक्त कोई भी अपनेरूप में ज्ञात हो तो साध्य की सिद्धि की अनुपपत्ति होती है। समस्या पर को जानने या नहीं जानने की नहीं है, विकारी- अविकारी भावों को जानने या नहीं जानने की भी नहीं है, अपितु उन्हें निजरूप जानने की है; क्योंकि उनमें एकत्व-ममत्व से मिथ्यात्व होता है, मात्र जानने से नहीं; क्योंकि निज को निजरूप और पर को पररूप जानने में कोई हानि नहीं, लाभ ही लाभ है।
यहाँ इस बात पर विशेष ध्यान आकर्षित किया जा रहा है कि बात तो मात्र इतनी-सी ही है कि तेरी आत्मा की सिद्धि मात्र इसलिए रुकी हुई है कि अनुभूतिस्वरूप भगवान आत्मा निरन्तर जानने में आते हुए भी तू उसे निज नहीं जानता, उसमें अपनापन स्थापित नहीं करता और उसीकाल में जानने में आते हुए रागादि में अपनापन करता है, परपदार्थों में अपनापन करता है । तेरी इतनी-सी भूल के कारण तू संसार में भटक रहा है। तू अपनी यह भूल सुधार ले तो कल्याण होने में देर नहीं ।
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उक्त सन्दर्भ में स्वामीजी कहते हैं
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'ज्ञायक, ज्ञायक, ज्ञायक यह जो जाननक्रिया द्वारा जाना जाता है; वह मैं हूँ - ऐसे अन्तर में नहीं जाकर जानने में आते हुए राग के वश होकर 'वह राग ही मैं हूँ' - इसप्रकार अज्ञानी मानता है; इसकारण आत्मज्ञान उदित नहीं होता। दर्शनमोह के कारण आत्मज्ञान उदित नहीं होता ऐसा नहीं कहा। कोई माने कि कर्म से होता है - यह बात झूठी है। तीनकाल में भी कर्म से आत्मा का कछ भी सुधार बिगाड़ नहीं होता । कर्म तो परद्रव्य है । परद्रव्य से स्वद्रव्य में 'कुछ होता है ' यह बात सर्वथा मिथ्या है । "
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१. प्रवचनरत्नाकर (हिन्दी) भाग १ पृष्ठ ३०३
गाथा १७-१८
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