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समयसार अनुशीलन
अरे भाई, राई की ओट में पहाड़ छिप गया है । आँख की पुतली के सामने से राई हटी नहीं कि पूरा पहाड़ दिखाई देने लगेगा; क्योंकि पहाड़ तो एकदम सामने ही पड़ा है न ? अनुभूतिस्वरूप भगवान आत्मा सदा अन्तर में ही विराजमान है, निरन्तर अनुभव में भी आ रहा है; बस कमी तो इतनी ही है कि ऐसा आत्मज्ञान उदित नहीं हो रहा है कि यह जो ज्ञायकरूप से ज्ञात हो रहा है, वही मैं हूँ। ऐसा ज्ञान उदित होते ही, सहज ही उसी में अपनापन स्थापित हो जावेगा और तदनुरूप आचरण भी उदित हो जायेगा। साध्य की सिद्धि का यही एकमात्र उपाय है। __ अब आचार्यदेव कलशरूप काव्य लिखते हैं। ये सत्तरह-अठारहवीं गाथाएँ भी ऐसी गाथाएँ हैं कि जिनकी टीका के बीच में ही आचार्य अमृतचन्द्र ने कलशरूप काव्य लिखा है; जो इसप्रकार है -
( मालिनि ) कथमपि समुपात्तत्रित्वमप्येकताया
अपतितमिदमात्मज्योतिरुद्गच्छदच्छम्। सततमनुभवामोऽनंतचैतन्यचिन्हं न खलु न खलु यस्मादन्यथा साध्यसिद्धिः॥२०॥
( हरिगीत ) त्रैरूपता को प्राप्त है पर ना तजे एकत्व को। यह शुद्ध निर्मल आत्मज्योति प्राप्त है जो स्वयं को। अनुभव करें हम सतत ही चैतन्यमय उस ज्योति का। क्योंकि उसके बिना जग में साध्य की हो सिद्धि ना॥२०॥ यद्यपि जिसने किसी भी प्रकारसे तीनपने को अंगीकार किया है, तथापि जो एकत्व से च्युत नहीं हुई है, निर्मलता से उदय को प्राप्त है
और अनन्तचैतन्य है चिन्ह जिसका; ऐसी आत्मज्योति का हम निरन्तर अनुभव करते हैं; क्योंकि उनके अनुभव के बिना साध्य की सिद्धि नहीं होती । - ऐसा आचार्य देव कह रहे हैं।