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समयसार अनुशीलन
230 उत्तर - इसी बात को स्पष्ट करते हुए आचार्य माणिक्यनन्दि परीक्षामुख सूत्र में लिखते हैं -
"घटमहमात्मना वेनि । कर्मवत् कर्तृकरणक्रियाप्रतीतेः।
मैं (आत्मा) घड़े को स्वयं (ज्ञान) से जानता हूँ। घड़ेरूप कर्म के समान कर्ता आत्मा, करण ज्ञान एवं जानना क्रिया भी जानने में आती है।"
उक्त सूत्रों में यह बात स्पष्ट की गई है कि जब कोई व्यक्ति किसी पदार्थ को जानता है तो वह उस समय अकेले उस पदार्थ को ही नहीं जानता, अपितु यह भी जानता है कि मैं जान रहा हूँ, अपने ज्ञान से जान रहा हूँ और मात्र जान रहा हूँ, इसे बना नहीं रहा हूँ। इसतरह ज्ञेयरूप कर्म के साथ ज्ञातारूप कर्ता, ज्ञानरूप करण एवं जाननेरूप क्रिया भी जानने में आती है । जानने की प्रक्रिया का ही यह स्वरूप है; अत: जहाँ जानने का कार्य होगा, वहाँ ज्ञेय के साथ ज्ञाता, ज्ञान और जानना क्रिया भी जानने में अवश्य आवेगी। __ हाँ, यह बात अवश्य है कि ज्ञेय ज्ञेयरूप से ज्ञात होता है, ज्ञाता ज्ञातारूप से ज्ञात होता है, ज्ञान ज्ञानरूप से ज्ञात होता है और जानना जाननेरूप से ज्ञात होता है। इसलिए छठवीं गाथा में कहा था कि अनुभव में आत्मा ज्ञायकरूप में ज्ञात हुआ। ज्ञाता, ज्ञान, ज्ञेय के अभेद का भी यही आशय है कि अनुभव में ज्ञाता भी आत्मा, ज्ञेय भी आत्मा, ज्ञान भी आत्मा; जो कुछ है, वह सब आत्मा ही है।
यहाँ तो यह बताया जा रहा है कि ज्ञान में तो आत्मा भी ज्ञात हो रहा है, आत्मा में उत्पन्न होने वाले विकारी-अविकारी भाव भी ज्ञात हो रहे हैं, पुण्य-पाप भी ज्ञात हो रहे हैं और परपदार्थ भी ज्ञात हो रहे हैं । इन सब में जब अपनेरूप में अकेला अनुभूति स्वरूप आत्मा ही
१. परीक्षामुख अध्याय १, सूत्र ८९