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कलश १६-१९
है और पर्याय में जो निश्चय मोक्षमार्ग का तीनपने परिणमन उनमें एक प्रतीतिरूपभाव, एक जाननेरूपभाव तथा स्थिरतारूपभाव - ऐसे तीन स्वभाव भिन्न कहे हैं। तीन हैं, अनेकाकार हैं - इसकारण अशुद्ध कहे गये हैं । तीनपने का लक्ष्य करना अशुद्धता है और त्रिकाली एकाकार का लक्ष्य करना शुद्धता है ।
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साध्य यानि मोक्षपर्याय की प्राप्ति तो दर्शन - ज्ञान - चारित्र से ही है । तीन भेद करके तो समझाया गया है, आश्रय तो एक आत्मा का ही करना है । यह तो व्यवहारी लोगों को पर्याय के भेद से समझाया है; क्योंकि जगतजन भेद के बिना समझ नहीं सकते । सेवा तीन की नहीं, बल्कि सेवा तो अखण्ड एकरूप ज्ञायक की ही करनी है। 'दर्शनज्ञान - चारित्र से ही सिद्धि है'. ऐसा कहकर अन्य द्रव्य का निषेध किया है । स्वद्रव्य का ही सहारा है, अन्यद्रव्य का सहारा नहीं है । परद्रव्यरूप देव- शास्त्र - गुरु या उनकी भक्ति के विकल्प का भी मोक्षमार्ग में सहारा नहीं है यह बात भी आ गई । "
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उक्त कथन से सम्पूर्ण वस्तुस्थिति स्पष्ट हो गई है कि साध्य की सिद्धि तो एकमात्र शुद्धनय के विषयभूत भगवान आत्मा के आश्रय से उत्पन्न होनेवाले ज्ञान-दर्शन- चारित्र रूप परिणमन से ही होनेवाली है; अन्य देहादिक की क्रिया अथवा शुभरागरूप परिणमन से साध्य की सिद्धि तीन काल में भी होनेवाली नहीं है । अतः जिन लोगों को आत्मा का कल्याण करना हो, अपने को भवसमुद्र में नहीं डुबाना हो; अतीन्द्रिय- आनन्द की प्राप्ति करनी हो, सर्वज्ञता प्राप्त करनी हो; वे अपने त्रिकाली ध्रुव भगवान आत्मा को जाने, पहिचाने और उसी में जम जाय, रम जाय; क्योंकि सुखी होने का एकमात्र यही उपाय है ।
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१. प्रवचनरत्नाकार भाग १ (हिन्दी) पृष्ठ २८९
२. प्रवचनरत्नाकार भाग १ (हिन्दी) पृष्ठ २९० - २९१