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कलश १६-१९
( कवित्त तेईसा )
दरसन - ग्यान - चरन त्रिगुनातम समलरूप कहिये विवहार | निहचै- दृष्टि एकरस चेतन भेदरहित अविचल अविकार ॥ सम्यकदसा प्रमान उभैनय निर्मल समल एक ही बार । यौं समकाल जीव की परिणति कहैं जिनेन्द्र गह्रै गनधार ॥ ( दोहा )
एकरूप आतम दरब ग्यान चरन दृग तीन । भेदभाव परिनाम सौं विवहारै सु मलीन ॥ जदपि समल विवहार सौं पर्ययसकति अनेक । तदपि नियतनय देखिये सुद्ध निरंजन एक ॥ एक देखिए जानिये रमि रहिये इक ठौर । समल विमल न विचारिये यह सिद्धि नहिं और ॥
व्यवहारनय से भगवान आत्मा को दर्शन, ज्ञान और चारित्र रूप तीन गुण वाला होने के कारण व्यवहारनय से अनेकाकार, मेचक अथवा समल कहा जाता है और निश्चयनय से वही चेतन आत्मा भेदरहित अभेद अविचल अविकारी एकाकार, अमेचक या अमल कहा जाता है । प्रमाण की अपेक्षा यह भगवान आत्मा समल और अमल, एकाकार और अनेकाकार, मेचक और अमेचक एक ही साथ होता है। इसप्रकार जीव की परिणति समल और अमल एक साथ ही होती है। ऐसा जिनेन्द्रदेव कहते हैं और गणधरदेव ग्रहण करते हैं ।
यद्यपि आत्मद्रव्य एक रूप ही है, अमल ही है; तथापि व्यवहार से ज्ञान, दर्शन और चारित्र के तीन भेद रूप होने से अनेकाकार कहा जाता है, मलिन कहा जाता है ।
यद्यपि व्यवहारनय से पर्यायशक्ति अनेकाकार होने से समल कही गई है; तथापि निश्यचयनय से देखने पर भगवान आत्मा शुद्ध, निरंजन और एक ही है, अमल ही है ।
१. नाटक समयसार, जीवद्वार छन्द १६ से १९