________________
समयसार अनुशीलन
होता है; क्योंकि जाने बिना किसका श्रद्धान करेगा ? तत्पश्चात् समस्त
अन्यभावों से भेद करके अपने में स्थिर हो इसप्रकार सिद्धि होती है। किन्तु यदि जाने ही नहीं तो श्रद्धान भी नहीं हो सकता और ऐसी स्थिति में स्थिरता कहाँ से करेगा ? इसलिए यह निश्चय है कि अन्यप्रकार से सिद्धि नहीं होती । "
-
226
आचार्य जयसेन इस गाथा की टीका लिखते समय इस बात पर विशेष बल देते हैं कि जिसप्रकार धनार्थी छत्रचमरादि राज्यचिन्हों से राजा को जानकर श्रद्धा करता है और सेवा करता है; उसीप्रकार जीवराजा को स्वसंवेदनज्ञान से जानना चाहिए और निर्विकल्पसमाधि द्वारा उसका अनुभव करना चाहिए; शुभाशुभ विकल्प मात्र से कुछ होनेवाला नहीं है । तात्पर्य यह है कि वे आत्मानुभूति पर विशेष बल देते हैं ।
-
आचार्य अमृतचन्द्र आत्मख्याति में इन गाथाओं के भाव को इसप्रकार स्पष्ट करते हैं
" जिसप्रकार धनार्थीपुरुष पहले तो राजा को प्रयत्नपूर्वक जानता है, फिर उसका श्रद्धान करता है और फिर उसी का अनुचरण करता है, सेवा करता है, उसकी आज्ञा में रहता है, उसे हर तरह से प्रसन्न रखता है; उसीप्रकार मोक्षार्थीपुरुष को पहले तो आत्मा को जानना चाहिए, फिर उसी का श्रद्धान करना चाहिए; और फिर उसी का अनुचरण करना चाहिये, अनुभव के द्वारा उसी में लीन हो जाना चाहिए: क्योंकि साध्य की सिद्धि की उपपत्ति इसीप्रकार संभव है, अन्यप्रकार से नहीं ।
-
अब इस बात को विशेष स्पष्ट करते हैं. जब आत्मा को, अनुभव में आने पर अनेक पर्यायरूप भेदभावों के साथ मिश्रितता होने पर भी सर्वप्रकार से भेदविज्ञान में प्रवीणता से 'जो यह अनुभूति है, सो ही
मैं हूँ' – ऐसे आत्मज्ञान से प्राप्त होता हुआ इस आत्मा को जैसा जाना
-