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समयसार गाथा १७-१८ अब आगामी १७-१८वीं गाथाओं में उसी बात को उदाहरण से समझाकर स्पष्ट करते हैं, जिसकी चर्चा १६वीं गाथा में की गई है ।
जह णाम को वि पुरिसो रायाणं जाणिऊण सद्दहदि। तो तं अणुचरदि पुणो अत्थत्थीओ पयत्तेण॥१७॥ एवं हि जीवराया णादव्वो तह य सद्दहेदव्यो। अणुचरिदव्वो य पुणो सो चेव दु मोक्खकामेण॥१८॥
( हरिगीत ) 'यह नृपति है' - यह जानकर अर्थार्थिजन श्रद्धा करें। अनुचरण उसका ही करें अति प्रीति से सेवा करें ॥१७॥ यदि मोक्ष की है कामना तो जीवनप को जानिये। अति प्रीति से अनुचरण करिए प्रीति से पहचानिए॥१८॥ जिसप्रकार कोई धन का अर्थी पुरुष राजा को जानकर उसकी श्रद्धा करता है और फिर उसका प्रयत्नपूर्वक अनुचरण करता है, उसकी लगन से सेवा करता है; ठीक उसीप्रकार मोक्ष के इच्छुक पुरुषों को जीवरूपी राजा को जानना चाहिए और फिर उसका श्रद्धान करना चाहिए, उसके बाद उसी का अनुचरण करना चाहिए; अर्थात् अनुभव के द्वारा उसमें तन्मय हो जाना चाहिए।
यद्यपि गाथाओं का अर्थ एकदम सहज और सरल है ; तथापि पंडित जयचन्दजी छाबड़ा ने अपने भावार्थ में और भी सरल कर दिया है; जो इसप्रकार है -
"साध्य आत्मा की सिद्धि दर्शन-ज्ञान-चारित्र से ही है, अन्यप्रकार से नहीं; क्योंकि पहले तो आत्मा को जाने कि यह जो जाननेवाला अनुभव में आता है, सो मैं ही हूँ । इसके बाद उसका प्रतीतिरूप श्रद्धान