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गाथा १७-१८
है, वैसा ही है – इसप्रकार की प्रतीति जिसका लक्षण है - ऐसा श्रद्धान उदित होता है; तब समस्त अन्यभावों का भेद होने से निशंक स्थिर होने में समर्थ होने से आत्मा का आचरण उदय होता हुआ आत्मा को साधता है। ऐसे साध्य आत्मा की सिद्धि की इसीप्रकार उपपत्ति है।
परन्तु जब ऐसा अनुभूतिस्वरूप भगवान आत्मा आबाल-गोपाल सबके अनुभव में सदा स्वयं ही आने पर भी अनादिबंध के वश परद्रव्यों के साथ एकत्व के निश्चय से मूढ़ - अज्ञानीजन को 'जो यह अनुभूति है, वही में हूँ - ऐसा आत्मज्ञान उदित नहीं होता और उसके अभाव से, अज्ञात का श्रद्धान गधे के सींग के समान है, इसलिए श्रद्धान भी उदित नहीं होता; समस्त अन्यभावों के भेद से आत्मा में निशंक स्थिर होने की असमर्थता के कारण आत्मा का आचरण उदित न होने से आत्मा को साध नहीं सकता। इसप्रकार साध्य आत्मा की सिद्धि की अन्यथा अनुपपत्ति है।" __ आचार्य अमृतचन्द्र के उक्त कथन का पहला पैरा तो एकदम गाथा के अनुसार ही है; किन्तु दूसरे और तीसरे पैरे में वे साध्य की सिद्धि की उपपत्ति व अनुपपत्ति किसप्रकार होती है; - यह बात स्पष्ट करते हैं; जो गंभीरता से विचार करने योग्य है, गहराई से समझने योग्य है।
यह भगवान आत्मा स्वभाव से ही स्वपरप्रकाशक है, सभी पदार्थों को जानना इसका सहज स्वभाव है। अतः सदाकाल ही इसके स्वपरप्रकाशक ज्ञान का उदय रहता है और इसके ज्ञान में अपनी पर्यायगत योग्यतानुसार स्वपरपदार्थ प्रतिभासित होते रहते हैं। अपनी आत्मा में उत्पन्न होनेवाले पुण्य-पापरूप शुभाशुभ भाव भी ज्ञात होते रहते हैं और जानने-देखनेवाला अनुभूतिस्वरूप भगवान आत्मा भी ज्ञात होता रहता है।
यद्यपि ये सभी भाव मिश्रितरूप से ही ज्ञात होते हैं, अनुभूतिस्वरूप भगवान आत्मा भी पर्यायरूप अनेक भेदभावों के साथ मिश्रित ही