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कलश १६-१९
दर्शन-ज्ञान-चारित्रैस्त्रिभिः परिणतत्त्वतः। एकोऽपि त्रिस्वभावत्वाद् व्यवहारेण मेचकः॥१७॥ परमार्थेन तु व्यक्तज्ञातृत्वज्योतिषैककः। सर्वभावांतरध्वंसिस्वभावत्वादमेचकः ॥१८॥ आत्मनश्चिन्तयैवालं मेचकामेचकत्वयोः। दर्शन-ज्ञान-चारित्रैः साध्यसिद्धि न चान्यथा ॥१९॥
( हरिगीत ) मेचक कहा है आतमा दृगज्ञान अर आचरण से। यह एक निज परमात्मा है अमेचक बस स्वयं से। परमाण से मेचक अमेचक एक ही क्षण में अहा। यह अलौकिक मर्मभेदी वाक्य जिनवर ने कहा॥१६॥ आत्मा है एक यद्यपि किन्तु नय व्यवहार से। त्रैरूपता धारण करे सद्ज्ञान दर्शन चरण से। बस इसलिए मेचक कहा है आतमा जिनमार्ग में। इसे जाने बिन जगतजन न लगे सन्मार्ग में ॥१७॥ आत्मा मेचक कहा है यद्यपि व्यवहार से। किन्तु वह मेचक नहीं है अमेचक परमार्थ से। है प्रगट ज्ञायक ज्योतिमय वह एक है भूतार्थ से। है शुद्ध एकाकार पर से भिन्न है परमार्थ से॥१८॥ मेचक-अमेचक आतमा के चिन्तवन से लाभ क्या। बस करो अब इन विकल्पों से तुम्हें इन से साध्य क्या। हो साध्यसिद्धि एक बस सद् ज्ञान दर्शन चरण से।
पथ अन्य कोई है नहीं जिससे बचें संसरण से॥१९॥ यदि प्रमाण दृष्टि से देखें तो यह आत्मा एक ही साथ अनेक अवस्थारूप मेचक भी है और एक अवस्थारूप अमेचक भी है; क्योंकि इस आत्मा को दर्शन-ज्ञान-चारित्र से तीनपना – अनेकपना प्राप्त है और यह स्वयं से एक है।