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समयसार अनुशीलन
देखें उक्त सन्दर्भ में स्वामीजी क्या कहते हैं
अभेदकथन से व्यवहारीजन समझ नहीं सकते, इससे उन्हें दर्शन - ज्ञान - चारित्र के भेद करके व्यवहार से समझाया है कि साधुपुरुष दर्शन - ज्ञान - चारित्र का सेवन करें। भगवान आत्मा निश्चय है तो उसकी अपेक्षा दर्शन - ज्ञान - चारित्र इसप्रकार तीन का सेवन करना व्यवहार है, मेचकपन है, मलिनपन है, अनेकपन है दर्शनस्वभाव, ज्ञानस्वभाव, चारित्रस्वभाव - इत्यादि अनेक स्वभाव हो जाते हैं; इसकारण यह व्यवहार है । '
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ज्ञायकस्वभाव एकरूप है, उस एक का सेवन करने से पर्यायें तीन हो जाती हैं, अनेकस्वभाव स्वरूप हो जाती हैं । दर्शन, ज्ञान, चारित्र तीनों का भिन्न-भिन्न स्वभाव है । दर्शन का प्रतीतिरूप स्वभाव, ज्ञान का जानरूप स्वभाव और चारित्र का शान्ति व वीतरागतारूप स्वभाव है । एकरूप ज्ञायकस्वभावी भगवान आत्मा की सेवा करने से अनेकरूप स्वभावपर्यायें उत्पन्न होती हैं। इस अनेकरूप स्वभाव पर्यायों की सेवा करो - यह तो व्यवहार से उपदेश दिया है। इससे सिद्ध तो यही होता है कि दृष्टि में सेवन करने योग्य तो एक आत्मा ही है। "
अब आचार्य अमृतचन्द्रदेव चार कलशों के माध्यम से यह स्पष्ट करते हैं कि प्रमाण और नयों से आत्मा की उक्त सन्दर्भ में क्या स्थिति है और हमें क्या करना चाहिए?
उक्त चारों कलश इसप्रकार हैं
( अनुष्टुभ् )
दर्शन - ज्ञान - चारित्रैस्त्रित्वादेकत्वतः स्वयम् । मेचको मेचकश्चापि सममात्मा
१. प्रवचनरत्नाकर (हिन्दी) भाग १ पृष्ठ २७६ २. प्रवचनरत्नाकर (हिन्दी) भाग १ पृष्ठ २८०
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प्रमाणतः ॥ १६ ॥
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