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समयसार अनुशीलन यद्यपि इस बात को आठवीं गाथा में विस्तार से स्पष्ट कर दिया गया है, तथापि यहाँ भी संक्षेप में प्रकाश डालते हैं।
जब ज्ञानगुण आत्मसन्मुख होकर आत्मा का अनुभव करता है, तब आत्मा को जाननेरूप ज्ञान का जो निर्मल परिणमन होता है, उसे सम्यग्ज्ञान कहते हैं; उसीसमय आत्मसन्मुखता की दशा में ही श्रद्धागुण पर में से एकत्व-ममत्व तोड़कर शुद्धनय के विषयभूत भगवान आत्मा में जो अपनापन स्थापित करता है, श्रद्धागुण का वह आत्माश्रित निर्मल परिणमन सम्यग्दर्शन कहलाता है ; उसीसमय जो आत्मा में ही उपयोग केन्द्रित होता है, आत्मा ही ध्यान का ध्येय बनता है और चारित्रगुण में अनन्तानुबंधी कषाय के अभावरूप निर्मलता प्रगट होती है, वह सम्यक्चारित्र का अंश है।
दर्शन-ज्ञान-चारित्र की यह प्रकटता ही दर्शन-ज्ञान-चारित्र की उपासना कही जाती है, दर्शन-ज्ञान-चारित्र का सेवन कहा जाता है और यही आत्मा की उपासना है, आत्मा का सेवन है। यदि अज्ञानी को यही कहते रहें कि आत्मा का सेवन करो, आत्मा की उपासना करो, तो उसकी समझ में कुछ भी न आये; अत: उसे व्यवहार से समझाते हैं कि दर्शन-ज्ञान-चारित्र की उपासना करो, दर्शन-ज्ञान-चारित्र का सेवन करो। समझाने के लिए व्यवहार का आश्रय लेना ही पड़ता है। अत: यह ठीक ही कहा गया है - स्वयं तो यह निश्चय करे कि शुद्धनय का विषयभूत एक भगवान आत्मा ही उपास्य है; पर शिष्यों को व्यवहार से यह समझावे कि दर्शन-ज्ञान-चारित्र का सेवन करो। ___ "अभेद सो निश्चय और भेद सो व्यवहार" अथवा "एक सो निश्चय और अनेक सो व्यवहार" - निश्चय-व्यवहार की उक्त परिभाषाओं के अनुसार यहाँ अभेद एक आत्मा के सेवन को निश्चय
और उसके भेदरूप दर्शन-ज्ञान-चारित्र के सेवन को व्यवहार कहा गया है।