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समयसार गाथा १६ दंसणणाणचरित्ताणि सेविदव्वाणि साहुणा णिच्चं। ताणि पुण जाण तिण्णि वि अप्पाणं चेव णिच्छयदो॥१६॥
( हरिगीत ) चारित्र दर्शन ज्ञान को सब साधुजन सेवें सदा।
ये तीन ही हैं आतमा बस कहे निश्चयनय सदा॥१६॥ साधुपुरुष को दर्शन-ज्ञान-चारित्र का सदा सेवन करना चाहिए और उन तीनों को निश्चय से एक आत्मा ही जानो। __ गाथा में समागत 'साधु' शब्द का अर्थ पण्डित जयचन्दजी छाबड़ा एवं सहजानन्दजी वर्णी ने साधुपुरुष किया है, जो पूर्णत: सत्य प्रतीत होता है; क्योंकि इस ग्रन्थराज में मूलतः भद्र मिथ्यादृष्टि गृहस्थों को सम्यग्दर्शन की प्राप्ति का ही मार्ग बताया गया है। 'साधु' शब्द देखकर यह कहना उचित प्रतीत नहीं होता कि यह ग्रन्थराज मुनिराजों के लिए ही बनाया गया है और इसे पढ़ने का अधिकार भी मुनिराजों को ही है,सद्गृहस्थों को नहीं; क्योंकि इसमें सर्वत्र ही अज्ञानियों को समझाने का प्रयास किया गया है। मुनिराज तो ज्ञानी धर्मात्मा होते हैं, सम्यग्दृष्टि तो होते ही हैं, उन्हें सम्यग्दर्शन की प्राप्ति की प्रेरणा देने, मार्ग बताने की क्या आवश्यकता है?
यदि इसे पढ़ने का अधिकार गृहस्थों को नहीं है तो फिर पाण्डे राजमलजी, पण्डित बनारसीदासजी, पण्डित टोडरमलजी, पण्डित जयचन्दजी छाबड़ा, श्रीमद् रायचन्दजी, ब्र. शीतलप्रसादजी जैसे विद्वानों ने इसका अध्ययन कैसे किया ? बिना अध्ययन किये इसकी टीकायें लिखना, इसके उद्धरण अपने ग्रन्थों में देना कैसे सम्भव था? कहते हैं कि क्षुल्लक गणेशप्रसादजी वर्णी को तो आत्मख्याति कण्ठस्थ