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निश्चय में भिन्न द्रव्यों के बीच उपास्य-उपासकभाव घटित नहीं होता । आखिर एक द्रव्य दूसरे की उपासना क्यों करे ? उसमें ऐसी क्या कमी है, जो दूसरों के सामने हाथ पसारे ?
प्रत्येक आत्मा स्वयं में परिपूर्ण हैं । कहा भी है
कलश १५
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"हे प्रभु तूं सब बातें पूरा, हे प्रभु तूं सब बातें पूरा । पर की आस करे क्यों मूरख, तूं काँई बातें अधूरा ।। रे प्रभु तूं सब बातें पूरा ॥
निश्चय से प्रत्येक आत्मा का स्वयं का द्रव्यस्वभाव स्वयं के लिए उपास्य है और स्वयं की पर्याय उपासक है। इसप्रकार निश्चय से उपास्य-उपासकभाव एक द्रव्य में ही घटित होता है । अत: अरहंतसिद्धभगवान का सामान्य, नित्य, अभेद - अखण्ड, एक त्रिकालीध्रुव आत्मस्वभाव उपास्य है और उनके श्रद्धा - ज्ञान - चारित्र गुण की निर्मलपर्यायें उपासक हैं तथा वे सम्यग्दर्शन - ज्ञान - चारित्र की पर्यायें ही उपासना हैं । इसलिए यहाँ कहा गया है कि इस ज्ञान के घनपिण्ड आत्मा की ही नित्य उपासना करो; और आगामी गाथा में कहेंगे कि सम्यग्दर्शन - ज्ञान - चारित्र का सेवन करो; क्योंकि ये तीनों निश्चय से एक आत्मा ही हैं ।
इसप्रकार आत्मा की उपासना और सम्यग्दर्शन - ज्ञान - चारित्र का सेवन एक ही बात है
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बिना डींग हाँके दुर्भाग्य से लड़ने की जितनी क्षमता नारियों में सहज देखी जा सकती है; पुरुषों में उसके दर्शन असम्भव नहीं, तो दुर्लभ तो हैं ही।
आप कुछ भी कहो, पृष्ठ ५६