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समयसार अनुशीलन है, निज भगवान आत्मा की साधना है, निज भगवान आत्मा की शरण में जाना है।
इसप्रकार यह सुनिश्चित हुआ कि निरन्तर आत्मध्यान की दशा ही साध्यभाव की उपासना है और कभी-कभी आत्मध्यान की दशा होना, साधकभाव की उपासना है । आत्मा के कल्याण के इच्छुक पुरुषों को, चाहे वे साध्यभाव से उपासना करें या साधकभाव से उपासना करें, पर उपासना तो नित्य निज भगवान की ही करना चाहिए । ___ यह कलश १६वीं गाथा की उत्थानिका का कलश है । अत: गाथा में भी यही विषयवस्तु आनेवाली है।
इसप्रकार यह प्रतिफलित हुआ कि निश्चय से तो चौथे गुणस्थान से सिद्धभगवान तक सभी उपासक हैं और उपास्य है प्रत्येक का स्वयं का आत्मा, शुद्धनय का विषयभूत भगवान आत्मा, अबद्धस्पृष्टादिभावों से युक्त त्रिकाली ध्रुव आत्मा; अभेद-अखण्ड, सामान्य, नित्य, एक आत्मा; पर और पर्याय से भिन्न आत्मा; गुणभेद और प्रदेशभेद से भिन्न आत्मा, देहदेवल में विराजमान पर देह से भिन्न आत्मा।
प्रश्न -अरहंत-सिद्ध भगवान को उपासक कहना तो अच्छा नहीं लगता।
उत्तर -इसमें अच्छा नहीं लगने की क्या बात है, बुरा लगने की भी क्या बात है ? जब अपने में अपनापन स्थापित होने का नाम ही आत्म-उपासना है, जब स्वयं को जानने का नाम ही आत्म-उपासना है, जब स्वयं में स्थिर होने का नाम ही आत्म-उपासना है, जब स्वयं में जमने-रमने का नाम ही आत्म-उपासना है तो फिर क्या अरंहतसिद्ध भगवान अपने में अपनापन नहीं रखते, अपने को नहीं जानते, अपने में ही स्थिर नहीं हैं, क्या उनके सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र नहीं है ? यदि हैं तो फिर वे आत्मा के उपासक क्यों नहीं हैं, उन्हें आत्मोपासक कहने में क्या परेशानी है?