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समयसार अनुशीलन
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( कवित्त )
जंह ध्रुवधर्म कर्मछय लच्छन, सिद्धि समाधि साधिपद सोई । सुद्धपयोग जोग महिमंडित, साधक ताहि कहै सब कोई ॥ यौं परतच्छ परोच्छ रूप सौं, साधक साधि अवस्था दोई। दुहु कौ एक ग्यान संचय करि, सेवै सिववंछक थिर होई ॥ त्रिकालीध्रुव भगवान आत्मा के आश्रय से कर्मों क्षय करके जो अरहंत और सिद्धदशारूप समाधि दशा प्रगट होती है, वह साध्यभाव है और उसके पूर्व की शुद्धोपयोग दशा साधकभाव है । इन दोनों में प्रत्यक्ष और परोक्ष का अन्तर है, साध्यभाव प्रत्यक्ष है और साधकभाव परोक्ष है । इन दोनों को जाननेवाला ज्ञानी धर्मात्मा अपने में स्थिर होता है ।
यद्यपि एक अपेक्षा से सिद्धदशा साध्यभाव है और उसके नीचे की स्थिति साधकभाव है; तथापि यहाँ बनारसीदासजी अरहंत अवस्था को भी साध्यभाव में ही सामिल कर रहे हैं; क्योंकि वे साधकभाव को परोक्ष बता रहे हैं । अरहंतदशा ज्ञान की प्रत्यक्ष दशा ही है; अत: वह साध्यभाव ही हुई ।
यहाँ आत्मा की उपासना करने का तात्पर्य निज आत्मा की पूजाभक्ति करने से नहीं है, स्तुति - वंदना करने से भी नहीं है, नमस्कारादि करने से भी नहीं है; अपितु उसे सही रूप में जानने से है, पहिचानने से है, उसका अनुभव करने से है; उसी में समा जाने से है, उसी का नित्य ध्यान करने से है, ध्यान रखने से है; उसको ही सर्वस्व मानने
है; उसी में पूर्णत: समर्पित हो जाने से है। यही निज भगवान आत्मा की उपासना की विधि है, आराधना की विधि है, साधना की विधि है । निज भगवान आत्मा की यह उपासना दो प्रकार से होती है (१) साध्यभाव से और (२) साधकभाव से ।
चौथे गुणस्थान से लेकर चौदहवें गुणस्थान तक साधकदशा है और सिद्ध-अवस्था साध्यदशा है । अथवा चौथे गुणस्थान से बाहरवें
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