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कलश १५
एक शुद्धात्मा ही है । उस शुद्धात्मा की आराधना से, साधना से ही ज्ञानदर्शन-चारित्र की प्राप्ति होती है, प्रत्याख्यान होता है, संवर होता है
और योग भी होता है। ___ इसके बाद आनेवाली गाथा में दर्शन, ज्ञान और चारित्र के सेवन की प्रेरणा दी जायगी और साथ में यह भी कहा जायगा कि निश्चय से इन तीनों को एक आत्मा ही जानों । अब आगामी (१६वीं) गाथा की उत्थानिकारूप कलश कहते हैं
( अनुष्टुभ् ) एष ज्ञानघनो नित्यमात्मा सिद्धिमभीप्सुभिः। साध्यसाधकभावेन द्विधैकः समुपास्यताम्॥१५॥
( हरिगीत ) है कामना यदि सिद्धि की ना चित्त को भरमाइये। यह ज्ञान का घनपिण्ड चिन्मय आतमा अपनाइये। बस साध्य-साधकभाव से इस एक को ही ध्याइये।
अर आप भी पर्याय में परमातमा बन जाइये ॥१५॥ स्वरूप की प्राप्ति के इच्छुक पुरुष साध्यभाव और साधकभाव से इस ज्ञान के घनपिण्ड भगवान आत्मा की ही उपासना करें । ___ यहाँ आचार्य अमृतचन्द्रदेव उपदेश दे रहे हैं, आदेश दे रहे हैं कि आत्मार्थी पुरुषो ! आत्मा का कल्याण चाहनेवाले सत्पुरुषो !! तुम निरन्तर ज्ञान के घनपिण्ड, आनन्द के रसकन्द इस भगवान आत्मा की ही उपासना करो, आराधना करो; चाहे साध्यभाव से करो, चाहे साधकभाव से करो, पर एक निज भगवान आत्मा की ही उपासना करो। उपासना करने योग्य तो एकमात्र यह ज्ञान का घनपिण्ड और आनन्द का रसकन्द एक भगवान आत्मा ही है, अन्य कोई नहीं ।
महाकवि बनारसीदासजी नाटक समयसार में इस कलश का भावानुवाद करते हुये साध्य-साधक भाव को भी परिभाषित करते हैं, जो इसप्रकार हैं -