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कलश १४
रस से सर्वांग सराबोर है । मोह के क्षय से स्वयं में परिपूर्ण अति उज्ज्वल विज्ञानघन आत्मतत्त्व मुझे प्रगट हो।
उक्त कलश में ज्ञानानन्द से परिपूर्ण, अनाकुलस्वभावी, अखण्ड, अविनाशी आत्मा हमारी अनुभूति में सदा प्रकाशित रहे - यह भावना भाई गई है। ___ आत्मख्याति के अनुसार जो १५वीं व १६वीं गाथाएं हैं, उनके बीच जयसेनाचार्य की तात्पर्यवृत्ति में एक गाथा पाई जाती है, जो आत्मख्याति में नहीं है। वह गाथा इसप्रकार है -
आदा खु मज्झ णाणे आदा मे दसणे चरित्ते य। आदा पच्चक्खाणे आदा मे संवरे जोगे।
( हरिगीत ) निज ज्ञान में है आत्मा दर्शन चरित में आत्मा।
अर योग संवर और प्रत्याख्यान में भी आत्मा। निश्चय से मेरे ज्ञान में आत्मा ही है। मेरे दर्शन में, चारित्र में और प्रत्याख्यान में भी आत्मा ही है । इसीप्रकार संवर और योग में भी आत्मा ही है।
यह गाथा आचार्य जयसेन की तात्पर्यवृत्ति टीका में ही बंधाधिकार में २९६ गाथा के रूप में भी उपलब्ध होती है।
उक्त दोनों गाथायें यद्यपि एक सी ही हैं; तथापि जीवाधिकार में इसका अर्थ सामान्यरूप से करके आगे बढ़ गये हैं; पर बंधाधिकार में इसका अर्थ सहेतुक विस्तार से किया गया है; जो मूलत: पठनीय है।
आत्मख्याति के बंधाधिकार में भी इसी से मिलती-जुलती थोड़े बहुत अन्तर के साथ एक गाथा प्राप्त होती है, जिसका क्रमांक २७७ है। वह गाथा इसप्रकार है -