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इसप्रकार अनुभव के काल से भिन्न समय में भी सामान्यज्ञान का आविर्भाव हो सकता है । धारणाज्ञान की अपेक्षा तो वह सदा ही रहता है, पर स्मृति - प्रत्यभिज्ञान के समय कभी-कभी ही होता है।
१५वीं गाथा का निष्कर्ष निकालते हुए स्वामीजी कहते हैं
"यहाँ तीन बातें आई हैं
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(१) एक तो परद्रव्य और पर्याय से भी भिन्न, अखण्ड, एक, शुद्ध, त्रिकाली ज्ञानस्वभाव का अनुभवनरूप भावश्रुतज्ञान ही शुद्धनय है । (२) दूसरे शुद्धनय के विषयभूत द्रव्यसामान्य का अनुभव ही शुद्धनय है और यही जैनशासन है ।
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कलश १४
(३) तीसरे त्रिकाली शुद्धज्ञायक भाव का वर्तमान में भाव श्रुतज्ञानरूप अनुभव जैनशासन है; क्योंकि भावश्रुतज्ञान वीतरागी ज्ञान है, वीतरागी पर्याय है।"
गाथा में जिस शुद्धनय के विषय को जानने को सर्व जिनशासन का जानना कहा गया है, शुद्धनय का विषयभूत वह भगवान आत्मा हमारे ज्ञान में नित्य प्रकाशित रहे ऐसी भावना आगामी कलश में व्यक्त की
गई है।
कलश मूलतः इसप्रकार है
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( पृथ्वी )
अखण्डितमनाकुलं ज्वलदनंतमंतर्बहिर्महः परममस्तु नः सहजमुद्विलासं सदा । चिदुच्छलननिर्भरं सकलकालमालंबते
यदेकरसमुल्लसल्लवणखिल्यलीलायितम् ॥ १४ ॥
१. प्रवचनरत्नाकर (हिन्दी), भाग १, पृष्ठ २६९