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गाथा १५
अनुशरण करने पर जो अनुभव होता है, वह अनुभूति मोक्षमार्ग है । ऐसी वस्तु को जानने के बाद विकल्प आवें तो शास्त्र बाँचे; किन्तु ऐसे जीवों को शास्त्र पढ़ने की कोई अटक नहीं है अर्थात् शास्त्र पढ़े बिना चले नहीं - ऐसा नहीं है ।"
शास्त्रों के स्वाध्याय का मूल प्रयोजन तो एकमात्र दृष्टि के विषयभूत निजभगवान आत्मा को जानना है; क्योंकि उसके आश्रय से ही सम्यग्दर्शन-ज्ञान- चारित्ररूप मोक्षमार्ग की उत्पत्ति होती है । दृष्टि का विषय और शुद्धनय का विषय एक ही है । अत: जब शुद्धनय के विषयभूत भगवान आत्मा को जान लिया तो फिर शास्त्र पढ़ने की 'अनिवार्यता समाप्त हो जाती है; फिर भी ज्ञानी धर्मात्माओं की रुचि के अनुकूल होने से एवं उपयोग की विशुद्धि के लिए उपयोग अन्यत्र न भटके - इसके लिए ज्ञानी धर्मात्मा भी स्वाध्याय करते हैं और करना भी चाहिए। बात स्वाध्याय नहीं करने की नहीं है, अपितु यहाँ तो मात्र इतना बताया गया है कि आत्मानुभूति हो जाने पर वह अनिवार्य नहीं
रहता ।
गाथा का मूल अभिप्राय तो यही है कि जो व्यक्ति के शुद्धनय विषयभूत अबद्धस्पृष्ट, अनन्य, नियत, अवशेष और असंयुक्त निजआत्मा को द्रव्यश्रुत और भावश्रुत से जानते हैं, अनुभूतिपूर्वक जानते हैं; वे सर्व जिनशासन को जानते हैं ।
इस गाथा के भाव को आत्मख्याति में इसप्रकार स्पष्ट किया गया
है
"जो यह अबद्धस्पृष्ट, अनन्य, नियत, अविशेष और असंयुक्त ऐसे पाँचभावस्वरूप आत्मा की अनुभूति है, वह निश्चय से समस्त जिनशासन की अनुभूति है; क्योंकि श्रुतज्ञान स्वयं आत्मा ही है, इसलिए ज्ञान की अनुभूति ही आत्मा की अनुभूति है ।
१. प्रवचनरत्नाकार (हिन्दी), भाग १, पृष्ठ २६०