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समयसार अनुशीलन
192 आत्मा को जानता है, अनुभव करता है; वह समस्त जिनशासन को जानता है।
तात्पर्य यह है कि जो जैनागम के माध्यम से या उसके उपदेशदाता जिनवरदेव या जिनगुरुओं के माध्यम से, ज्ञानी धर्मात्माजनों के माध्यम से निजभगवान आत्मा को जानकर उसका अनुभव करता है, आत्मानुभूति से सम्पन्न होता है; वही समस्त जिनशासन का मर्मज्ञ है। और भी अधिक स्पष्ट कहें तो यह कह सकते हैं कि देशनालब्धिपूर्वक करणलब्धि पार कर जो आत्मानुभवी हुए हैं; वे ही समस्त जिनशासन के मर्मज्ञ हैं। इस संदर्भ में स्वामीजी का कथन भी द्रष्टव्य है -
"अन्तर में एकरूप परमात्मतत्त्व की प्रतीति व रमणता करना ही शुद्धोपयोग है, जैनशासन है। यह जैनशासन "अपदेशसान्तमध्य" अर्थात् बाह्यद्रव्यश्रुत और अभ्यन्तर ज्ञानरूप भाव श्रुतवाला है। जयसेनाचार्य की टीका में आता है कि बाह्यद्रव्यश्रुत में ऐसा ही कहा है कि अबद्धस्पृष्ट आत्मा का अनुभव करना ही जैनशासन है। बारह अंगरूप वीतरागवाणी का यही सार है कि शुद्धात्मा का अनुभव कर। द्रव्यश्रुत वाचक है, अन्दर भावश्रुतज्ञान उसका वाच्य है। द्रव्यश्रुत अबद्धस्पृष्ट आत्मा के स्वरूप का निरूपण करता है और भावश्रुत अबद्धस्पृष्ट आत्मा का अनुभव करता है।
पण्डित श्री राजमलजी ने कलश १३ में बहुत सुन्दर स्पष्टीकरण किया है।
"शिष्य ने पूछा - इस प्रंसग में दूसरी यह भी शंका होती है कि कोई जानेगा कि द्वादशांगज्ञान कोई अपूर्व उपलब्धि है?
उसका समाधान - द्वादशांगज्ञान विकल्प है। उसमें भी ऐसा ही कहा है कि शुद्धात्मानुभूति मोक्षमार्ग है, वीतरागी शुद्धात्मा का