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कलश १२
कर्मकलंकरूपी कीचड़ से रहित, अचल, अवाधित प्रगटरूप शास्वत परमात्मा के रूप में देखता है ।
तात्पर्य यह है कि अपना यह आत्मा ही कर्मकलंक से रहित स्वयं साक्षात् परमात्मा है ।
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भगवान दो प्रकार के होते हैं एक तो वे अरहंत और सिद्ध परमात्मा जिनकी मूर्तियाँ मन्दिरों में विराजमान हैं और उन मूर्तियों के माध्यम से हम उन मूर्तिमान परमात्माओं की नित्य उपासना करते हैं, भक्ति करते हैं, पूजन करते हैं; जिस पथ पर वे चले, उस पथ पर चलने का संकल्प करते हैं, भावना भाते हैं। ये अरहंत और सिद्ध कार्यपरमात्मा कहलाते हैं ।
दूसरे देहदेवल में विराजमान शुद्धनय का विषयभूत निजभगवान आत्मा भी परमात्मा है; भगवान है और इसे कारणपरमात्मा कहते हैं । इस कारणपरमात्मा की ही चर्चा इस १२वें कलश में की गई है । मन्दिर में विराजमान परमात्माओं के दर्शन का नाम देवदर्शन है और उससे हमें सातिशय पुण्य का बंध होता है; पर देहदेवल में विराजमान भगवान आत्मा के दर्शन का नाम सम्यग्दर्शन है और इससे किसी कर्म का बंध नहीं होता, अपितु बंध का अभाव होता है, कर्मबंधन करते हैं ।
इस त्रिकाली ध्रुव निजभगवान आत्मा के आश्रय से ही सम्यग्दर्शनज्ञान - चारित्र की प्राप्ति होती है और यह संसारी आत्मा पर्याय में परमात्मा बनता है, सच्चा देव बनता है; इसकारण वह देवाधिदेव है । वह शाश्वत है, नित्य है, सदा ही कर्मकलंकरूप पंक से विकल है, कर्मों से अबद्धस्पृष्ट है; अनन्य है, नियत है, अविशेष है, असंयुक्त है, अनुभवगम्य है; एकमात्र आराध्य भी वही है और उसकी आराधना ही परमधर्म है ।
वह भगवान आत्मा तेरे भीतर ही विराजमान है, तू ही है; फिर भी यह अज्ञानी जगत उसे बाहर में खोजता है । यह बड़ी भारी भूल है ।