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समयसार अनुशीलन
182 __ अब आगामी कलश में इसी शुद्धनय के विषयभूत भगवान आत्मा के अनुभव करने की प्रेरणा देते हैं। कलश मूलतः इसप्रकार है -
( मालिनी ) न हि विदधति बद्धस्पृष्टभावादयोऽमी
स्फुटमुपरितंरतोप्येत्य यत्र प्रतिष्ठाम् । अनुभवतु तमेव द्योतमानं समन्तात् जगदपगतमोहीभूय सम्यक्स्वभावम् ॥११॥
( हरिगीत ) पावें न जिसमें प्रतिष्ठा बस तैरते हैं बाह्य में।
ये बद्धस्पृष्टादि सब जिसके न अन्तरभाव में। जो है प्रकाशित चतुर्दिक उस एक आत्मस्वभाव का।
हे जगतजन ! तुम नित्य ही निर्मोह हो अनुभव करो ॥११॥ ये बद्धस्पृष्टादि पाँच भाव जिस आत्मस्वभाव में प्रतिष्ठा को प्राप्त नहीं करते, मात्र ऊपर-ऊपर ही तैरते हैं और जो आत्मस्वभाव चारों
ओर से प्रकाशमान है अर्थात् सर्व-अवस्थाओं में प्रकाशमान है; आत्मा के उस सम्यक्स्वभाव का हे जगत के प्राणियों ! तुम मोहरहित होकर अनुभव करो।
उक्त छन्द में शुद्धनय के विषयभूत बद्धस्पृष्टादि पाँच भावों से रहित, अपनी समस्त अवस्थाओं में प्रकाशमान सम्यक् आत्मस्वभाव के अनुभव करने की प्रेरणा दी गई है और यह भी कहा गया है कि शुद्धनय के विषयभूत इस भगवान आत्मा के अतिरिक्त जो बद्धस्पृष्टादि पाँच भाव हैं, उनसे एकत्व का मोह तोड़ो, उन्हें अपना मानना छोड़ो।
चूंकि अनुभव में श्रद्धा, ज्ञान, चारित्र आदि गुणों की सभी अन्तरोन्मुखी पर्यायें शामिल होती हैं; अत: यहाँ अनुभव करने का आशय यह है कि शुद्धनय के विषयभूत भगवान आत्मा को ही जानो, उसमें ही अपनापन स्थापित करो और उसमें ही स्थिर हो जावो, लीन