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गाथा १४
प्रदेशभेद से भिन्नता को गुणभेद से भिन्न में गर्भित जानना चाहिए; क्योंकि आत्मा में गुणों के समान ही प्रदेशों की स्थिति है । जिसप्रकार यह भगवान आत्मा अनन्तगुणात्मक होकर भी एक है, उसीप्रकार असंख्यप्रदेशी होकर भी अभेद है। जिसप्रकार आत्मा में गुण हैं; पर गुणभेद नहीं; उसीप्रकार आत्मा में प्रदेश हैं, पर प्रदेशभेद नहीं ।
प्रदेशभेद से भिन्नता को व्यंजनपर्यायों से भिन्नता में भी गर्भित किया जा सकता है; क्योंकि व्यंजनपर्यायें आत्मा के आकार से ही संबंधित हैं और प्रदेशत्वगुण के विकार को ही व्यंजनपर्याय कहते हैं ।
कलशटीका के अर्थ के अनुसार विचार करें तो प्रदेशभेद के निषेध की बात नियत विशेषण से भी ली जा सकती है ।
इसप्रकार प्रदेशभेद की बात विभिन्न अपेक्षाओं से अनन्य, नियत और अविशेष विशेषणों में से किसी से भी ली जा सकती है या फिर तीनों से ही ली जा सकती है ।
भगवान आत्मा को व्यजंनपर्याय से भिन्नता के कारण अनन्य विशेषण में देह से भिन्न, अबद्धस्पृष्ट विशेषण में द्रव्यकर्म से भिन्न, असंयुक्त विशेषण में भावकर्म से भिन्न, नियत विशेषण में पर्यायों से पार, सर्वपर्यायों में एकाकार और अविशेष विशेषण में गुणभेद से भिन्न बता दिया है और विभिन्न अपेक्षाओं से प्रदेशभेद का भी निषेध कर दिया गया है । इसप्रकार जो नय आत्मा को देह से भिन्न, द्रव्यकर्मभावकर्म से भिन्न, पर्यायों से पार, सर्वपर्यायों में एकाकार और गुणभेद से भिन्न प्रदेशभेद से भिन्न असंख्यातप्रदेशी एक बताये; वह शुद्धनय है । यह सहज ही प्रतिफलित हो गया ।
छठवीं-सातवीं गाथा में दृष्टि के विषयभूत जिस शुद्धात्मा का प्रतिपादन किया गया था, उसे ही यहाँ अबद्धस्पृष्ट, अनन्य, नियत, अविशेषं और असंयुक्त विशेषणों से समझाया गया है।