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गाथा १४
विचार करना चाहिये; क्योंकि अनुभूति में तो असंख्यप्रदेशी अखण्ड आत्मा ही अनुभव में आता है, कोई आकार दिखाई नहीं देता, कोई प्रकाश दिखाई नहीं देता। प्रकाश तो पुद्गल की पर्याय है और आकार देहादि का ही है । अत: अनुभूति में प्रकाश और आकार दिखने की बात कपोलकल्पित ही है ।
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४९वीं गाथा में आत्मा को अनिर्दिष्टसंस्थान वाला कहा है। उसका आशय भी यही है कि आत्मा का ऐसा कोई सुनिश्चित आकार नहीं है, जिसे ध्यान का ध्येय बनाया जाय । अनिर्दिष्टसंस्थान की विस्तृत व्याख्या तो यथास्थान ही होगी; यहाँ तो मात्र इतना स्पष्ट करना ही अभीष्ट है कि ध्यान में भगवान आत्मा का कोई आकार नहीं दिखता । अतः शुद्धनय के विषय में, दृष्टि के विषय में भी कोई आकार सम्मिलित नहीं है ।
(४) अविशेष विशेषण से शुद्धनय के विषयभूत भगवान आत्मा गुणभेद से भिन्न बताया गया है। इस बात को सोने का उदाहरण देकर स्पष्ट किया गया है। सोने को सोने में विद्यमान गुणों की ओर से देखें तो सोना पीला है, चिकना है, भारी है; यह बात सत्य ही है, तथापि जिसमें सर्व विशेष विलय को प्राप्त हो गये हैं; ऐसे सोने के शुद्धस्वभाव की ओर से देखें तो सोना तो सोना ही है; पीला, चिकना आदि कुछ भी नहीं ।
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इसीप्रकार ज्ञान, दर्शन, चारित्र आदि गुणों की ओर से देखने पर भगवान आत्मा ज्ञान है, दर्शन है, चारित्र है; पर जिसमें सर्व विशेष विलय को प्राप्त हो गये हैं, ऐसे आत्मस्वभाव के समीप जाकर देखें तो आत्मा तो आत्मा ही है, न ज्ञान है, न दर्शन है और न चारित्र है ।
इस विषय को ७वीं गाथा में विस्तार से स्पष्ट किया जा चुका है। अतः यहाँ विशेष विस्तार की आवश्यकता नहीं है
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