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गाथा १४
उक्त कथन का तात्पर्य यह है कि आत्मा कर्मोदयानुसार जिस देह में पहुँच जाता है, आत्मा के प्रदेश वही आकार धारण कर लेते हैं और ज्यों-ज्यों देह का आकार बदलता है, तदनुसार आत्मा का आकार भी बदलता रहता है । यद्यपि आत्मप्रदेशों के उक्त आकारों के कारण आत्मा को कोई सुख-दुःख नहीं होता, तथापि वे आकार आत्मा के निरुपाधि आकार तो नहीं माने जा सकते। ऐसी स्थिति में वे आकार आत्मध्यान के ध्येय भी कैसे बन सकते हैं?
यदि किसी मनुष्यादि देह के आकार में स्थित आत्मा को ध्यान का ध्येय बनायेंगे तो वह मनुष्यादि पर्याय ही ज्ञान का ज्ञेय और ध्यान का ध्येय बनेगी, जो निश्चित रूप से द्रव्यदृष्टि न होकर पर्यायदृष्टि ही होगी। अतः प्रश्न उपस्थित होता है कि आत्मानुभूति प्राप्त करने के लिए आत्मा के किस आकार का ध्यान किया जाये ?
दूसरी बात यह भी है कि मनुष्यादि आकार की बात भी स्थूल है; चलती-फिरती सांस लेती मनुष्य देह के भी तो दिन में हजारों आकार बदलते हैं; तदनुसार आत्मा का आकार भी बदलेगा ही । ऐसी स्थिति में मनुष्यादि देह के किस आकार को ध्यान का ध्येय बनाया जायेगा ?
इस समस्या के समाधान के लिये यदि यह कहा जाय कि सिद्धदशा में आत्मा जिस आकार में रहता है, उसी आकार का ध्यान किया जाय; तो भी समस्या का समाधान न होगा; क्योंकि सिद्धों का आकार भी तो अन्तिम देह के अनुसार ही होता है, अन्तिमदेह के किंचत् न्यून होता है। निर्वाण होते समय अन्तिम समय में देह का जो आकार होगा, सिद्धदशा में भी किंचित् न्यूनरूप से वही आकार होगा - यह शास्त्रों का वचन है।
वह आकार भी तो आत्मा का निरुपाधि आकार नहीं हैं, वह भी तो एक प्रकार से देहाकार ही है और यह तो सर्वविदित ही है कि देहाकार के ध्यान से साध्य की सिद्धि नहीं होती ।