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समयसार अनुशीलन
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प्रश्न -जब नियत विशेषण से औपशमिक, क्षायोपशमिक एवं क्षायिकभावरूप अर्थपर्यायों का निषेध किया है तो साथ में औदयिकभावरूप अर्थपर्यायों का भी निषेध क्यों नहीं कर दिया?
उत्तर –उनका निषेध आगे असंयुक्त विशेषण के माध्यम से किया जायेगा। अत: यहाँ उनके निषेध की आवश्यकता नहीं समझी गई।
कलशटीका में अनियत का अर्थ कुछ हटकर किया है, जो इसप्रकार है -
"असंख्यातप्रदेशसम्बन्धी संकोच और विस्ताररूप परिणमन का नाम अनियतभाव है"
प्रदेशों के संकोच-विस्तार रूप तो नर-नारकादि रूप व्यंजन पर्यायें ही होती हैं; इसीकारण प्रदेशत्वगुण के विकार को व्यंजनपर्याय कहते हैं । उनका निषेध तो अनन्य विशेषण में ही किया जा चुका है। अतः यदि कलश टीका के उक्त कथन का आशय प्रदेशभेद के निषेध के रूप में लिया जाय तो भी अयुक्त न होगा।
आत्मा के क्षेत्र के सम्बन्ध में एक बात यह भी विचारणीय है कि आत्मा का कोई सुनिश्चित आकार तो है नहीं; क्योंकि जिनागम में उसे व्यवहार से देहप्रमाण और निश्चय से असंख्यप्रदेशी कहा गया है। आत्मा के आकार के सम्बन्ध में द्रव्यसंग्रह में जो कुछ कहा गया है, वह इसप्रकार है -
"अणुगुरुदेहपमाणो उवसंहारप्पसप्पदो चेदा।
असमुहदो ववहारा णिच्छयणयदो असंख्यदेसो वा॥ व्यवहारनय से यह जीव समुद्घात के काल को छोड़कर संकोचविस्तार के कारण अपने छोटे या बड़े शरीर प्रमाण रहता है और निश्चयनय की अपेक्षा असंख्यात प्रदेशी है।" १. आचार्य नेमिचन्द्र सिद्धान्तिदेव : द्रव्यसंग्रह, गाथा १०