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समयसार अनुशीलन
इसप्रकार इस विशेषण से दृष्टि के विषयभूत भगवान आत्मा को पर से भिन्न सिद्ध किया गया है।
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(२) अनन्य विशेषण से शुद्धनय के विषयभूत भगवान आत्मा को अनेक द्रव्यपर्यायों (असमानजातीय द्रव्यपर्यायों) से नर-नारकादि पर्यायों से भी पार बताया गया है। मिट्टी और मिट्टी से बने हुए घट, सकोरा आदि बर्तनों के उदाहरण से यह बात स्पष्ट हो गई है कि यद्यपि घट और सकोरा अन्य - अन्य हैं, जुदे- जुदे हैं; घट सकोरा नहीं है और सकोरा घट नहीं है; तथापि जब हम घट और सकोरा को दृष्टि में न लेकर जिस मिट्टी से वे दोनों बने हैं, उस मिट्टी के रूप में ही देखें तो घट भी मिट्टी ही है और सकोरा भी मिट्टी ही है; अतः वे दोनों अन्यअन्य नहीं, अनन्य (एक) ही हैं।
इसीप्रकार यद्यपि मनुष्य और नारकी अन्य-अन्य (जुदे - जुदे) ही हैं, मनुष्य नारकी नहीं है और नारकी मनुष्य नहीं है; तथापि जब हम मनुष्य और नारकी पर्यायों को दृष्टि में न लेकर, जिस आत्मा की वे पर्यायें हैं, उन सभी पर्यायों में व्याप्त एकाकार उस आत्मा को देखें तो मनुष्य भी आत्मा ही है और नारकी भी आत्मा ही है; अत: नारकी और मनुष्य दोनों अन्य - अन्य नहीं हैं, अनन्य (एक) ही है ।
यदि पर्याय की ओर से देखें तो मारीचि अन्य है और महावीर अन्य है । मारीचि का चरित्र जानकर हमें उसके प्रति अश्रद्धा होती है और महावीर का चरित्र जानकर हमें उनके प्रति श्रद्धा उत्पन्न होती है, मारीचि से द्वेष होता है और महावीर से राग होता है; पर जब हमारा ध्यान मारीचि और महावीर पर्याय की ओर नहीं जाता है; उन दोनों पर्यायों में अनुस्यूतरूप से विद्यमान भगवान आत्मा की ओर जाता है, तोन अश्रद्धा होती है, न श्रद्धा होती है, साम्यभाव रहता है; न द्वेष होता है न राग होता है, एक वीतरागभाव बना रहता है ।