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समयसार अनुशीलन
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नियतस्वभाव की ओर से देखें तो वह न कभी घटता ही है और न कभी बढ़ता ही है, सदा अपनी मर्यादा में ही रहता है; अत: वह नियत ही है, अनियत नहीं; इस दृष्टि से उसका अनियतपना अभूतार्थ है, असत्यार्थ है। ___ द्रव्य होने से आत्मा में षट्गुणी हानि-वृद्धिरूप पर्यायें भी है और
औपशमिकभाव, क्षायिकभाव और क्षामोपशमिकभाव रूप पर्यायें भी हैं। इन पर्यायों की ओर से देखने पर आत्मा भी घटता-बढ़ता है; अत: अनियतस्वभाववाला है, अनियत है; पर नित्य स्थिर नियतस्वभाव की ओर से देखने पर यह अनियतता अभूतार्थ है, असत्यार्थ है। चूंकि शुद्धनय के विषयभूत आत्मा का स्वभाव नियत है, अत: शुद्धनय के विषयभूत भगवान आत्मा में यह अनियतता नहीं है।
उक्त सन्दर्भ में स्वामीजी का स्पष्टीकरण भी द्रष्टव्य है -
"इसीप्रकार आत्मा को वृद्धि-हानिरूप पर्यायों से देखें तो अनियतपना कम-बढ़पना है । ज्ञान की पर्याय में ही हीनाधिकता होती है। किसी समय नौ पूर्व का क्षयोपशम प्रगट हो- ज्ञान की ऐसी पर्याय होती है तो किसी समय अक्षर का अनन्तवाँ भागमात्र ज्ञान का क्षयोपशम देखा जाता है । आलू, लहसुन, मूली आदि कंदमूल में निगोद के जीव हैं । एक राई जितने टुकड़े में असंख्यात शरीर हैं। एक-एक शरीर में आजतक जितने सिद्ध हुए, उनसे अनंतगुणे जीव हैं। निगोद के जीवों की पर्याय में अक्षर के अनन्तवें भाग ज्ञान का विकास है। उसमें से कोई जीव बाहर निकल कर मनुष्य होकर द्रव्यलिंगी साधु हो और पर्याय में नौ पूर्व की लब्धि (क्षयोपशमज्ञान) प्रगट करले। ___ इसप्रकार आत्मा के वृद्धि-हानिरूप पर्याय भेदों से देखने पर अनियतपना सत्यार्थ है । व्यवहारनय से पर्याय में हानि-वृद्धि है - यह सत्य है; तथापि नित्य स्थिर (निश्चल) उत्पाद-व्ययरहित ध्रुव आत्मस्वभाव के समीप जाकर अनुभव करने पर अनियतता अभूतार्थ