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गाथा १४
है। आत्मस्वभाव में वृद्धि-हानि नहीं है, उत्पाद-व्यय में वृद्धि-हानि भले हो । पर्याय में केवलज्ञान हो, तो भी ध्रुवस्वभाव में कुछ घटता नहीं है और निगोद में अक्षर का अनन्तवाँ भाग क्षयोमशम रह जाय, इससे नित्य ध्रुवस्वभाव में कुछ बढ़ जाय – ऐसा नहीं है। भले ही पर्याय में हीनाधिकता हो, तथापि वस्तु तो जैसी है, वैसी ध्रुव-ध्रुवध्रुवस्वभाव ही रहती है।
अहा हा .... ! विषय तो यह चलता है कि आत्मा की ज्ञान, दर्शन, वीर्य आदि की पर्यायों में एकपना नहीं है, वृद्धि-हानि होती है। पर्याय के लक्ष्य से देखने पर यह वृद्धि-हानि सत्यार्थ है, परन्तु पर्याय के लक्ष्य से त्रिकाली आत्मा अनुभव में नहीं आता; तथा आत्मा का सम्यक् श्रद्धानज्ञान तो त्रिकाली शुद्धज्ञायकभाव का अनुभव करने पर होता है।"
स्वामीजी के उक्त कथन में आत्मा के श्रद्धा, ज्ञान, चारित्र, सुख, वीर्य आदि गुणों की औपशमिक, क्षायोपशमिक और क्षायिकभावरूप पर्यायों में जो वृद्धि-हानि होती है, शुद्धनय के विषय में उसका निषेध किया गया है, प्रकारान्तर से उन औपशमिकादि पर्यायों का ही निषेध किया गया है। षट्गुणी हानि-वृद्धि का निषेध तो पण्डित जयचन्दजी छाबड़ा के भावार्थ से ही स्पष्ट हो जाता है । छाबड़ाजी के भावार्थ की वे पंक्तियाँ इसप्रकार हैं - ___ "शक्ति के अविभागी प्रतिच्छेद (अंश) घटते भी हैं और बढ़ते भी हैं - यह वस्तुस्वभाव है; इसलिए वह नित्य-नियत एकरूप दिखाई नहीं देता।"
इसकी व्याख्या स्वामीजी इसप्रकार करते हैं -
"शक्ति के अविभागी प्रतिच्छेद (अंश) घटते भी हैं और बढ़ते भी हैं । ज्ञानादिक पर्याय में हीनाधिकता होती है। पर्याय में हीनाधिकता
१. प्रवचनरत्नाकर (हिन्दी) भाग १, पृष्ठ २३३