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गाथा १४
भूतार्थ हैं, सत्यार्थ हैं; पर शुद्धनय की दृष्टि से वे भाव आत्मा में नहीं है; अत: अभूतार्थ हैं, असत्यार्थ हैं। ___ध्यान रहे कि ये बद्धस्पृष्टादिभाव और अबद्धस्पृष्टादिभाव एक ही
आत्मा में एक ही काल में विभिन्न अपेक्षाओं से एक ही साथ घटित होते हैं, रहते हैं । यह एक ही आत्मा की बात है, भिन्न-भिन्न अनेक आत्माओं की नहीं। जो आत्मा जिस समय अशुद्धनय से बद्धस्पृष्टादिभावों से सहित होता है; वही आत्मा उसी समय शुद्धनय से बद्धस्पृष्टादिभावों से रहित भी होता है। इसमें कोई क्या करे, वस्तुस्वरूप ही ऐसा है।
इस गाथा में अबद्धस्पृष्ट, अनन्य, नियत, अविशेष और असंयुक्त - इन पाँच विशेषणों के माध्यम से शुद्धनय के विषयभूत भगवान आत्मा का स्वरूप स्पष्ट किया गया है; क्योंकि निश्चय सम्यग्दर्शनज्ञान-चारित्र की उत्पत्ति इसी आत्मा के आश्रय से होती है।
(१) इन पाँच विशेषणों में अबद्धस्पृष्ट आत्मा की पर से भिन्नता को बताया है। जब आत्मा का पर के साथ कोई सम्बन्ध ही नहीं है तो कर्मों से बंधने की बात ही कहाँ रहती है? इसीप्रकार जब भगवान आत्मा में स्पर्श नामक गुण ही नहीं है तो उसे कोई छू भी कैसे सकता है? __ आगम में कर्म से बंधने और पर के स्पर्श की जो बात आती है, आत्मख्याति टीका में उसकी भूतार्थता की अपेक्षा भी स्पष्ट कर दी है और साथ में यह भी स्पष्ट कर दिया है कि आत्मस्वभाव के समीप जाकर देखने पर बंधन की बात, पर के स्पर्श की बात एकदम अभूतार्थ है। जल में डूबे हुए कमलिनी पत्र के उदाहरण से यह बात एकदम स्पष्ट हो गई है । यद्यपि कमलिनी का पत्ता जल में डूबा हुआ है, तथापि वह अपने रूखे स्वभाव के कारण रंचमात्र भी गीला नहीं होता। उसीप्रकार यह भगवान आत्मा कर्मों के मध्य स्थित होने पर अपने अबद्धअस्पर्शीस्वभाव के कारण कर्मों से अबद्ध ही है, अस्पर्शी ही है।