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समयसार अनुशीलन
उत्तर - बद्धस्पृष्टादिभावों की भूतार्थता - अभूतार्थता पर आचार्य अमृतचन्द्र ने आत्मख्याति में विविध उदाहरणों के माध्यम से विस्तार से प्रकाश डाला है, जो इसप्रकार है
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अबद्धस्पृष्ट, अनन्य, नियत, अविशेष और असंयुक्त आत्मा की अनुभूति शुद्धनय है और वह अनुभूति आत्मा ही है, इसप्रकार एक आत्मा ही प्रकाशमान है। शुद्धनय, आत्मा की अनुभूति या आत्मा सब एक ही है, अलग-अलग नहीं ।
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प्रश्न - ऐसे आत्मा की अनुभूति कैसे हो सकती है ? उत्तर - बद्धस्पृष्टादिभावों के अभूतार्थ होने से यह अनुभूति हो सकती है। अब इसी बात को पाँच दृष्टान्तों के द्वारा विस्तार से स्पष्ट करते हैं
(१) जिसप्रकार जल में डूबे हुए कमलिनी पत्र का जल से स्पर्शितपर्याय की ओर से अनुभव करने पर, देखने पर, जल से स्पर्शित होना भूतार्थ है, सत्यार्थ है; तथापि जल से किंचित्मात्र भी स्पर्शित न होने योग्य कमलिनी पत्र के स्वभाव के समीप जाकर अनुभव करने पर जल से स्पर्शित होना अभूतार्थ है, असत्यार्थ है ।
इसीप्रकार अनादिकाल से बंधे हुए आत्मा का पुद्गलकर्मों से बंधने, स्पर्शित होनेरूप अवस्था से अनुभव करने पर बद्धस्पृष्टता भूतार्थ है, सत्यार्थ है; तथापि पुद्गल से किंचित्मात्र भी स्पर्शित न होने योग्य आत्मस्वभाव के समीप जाकर अनुभव करने पर बद्धस्पृष्टता अभूतार्थ है, असत्यार्थ है ।
(२) जैसे कुण्डा, घड़ा, खप्पर आदि पर्यायों से मिट्टी का अनुभव करने पर अन्यत्व (वे अन्य-अन्य हैं, जुदे- जुदे हैं यह ) भूतार्थ है, सत्यार्थ है; तथापि सर्वत: अस्खलित ( सर्वपर्याय भेदों से किंचित्मात्र भी भेदरूप न होनेवाले ) एक मिट्टी के स्वभाव के समीप जाकर अनुभव करने पर अन्यत्व अभूतार्थ है, असत्यार्थ है ।
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