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समयसार अनुशीलन
(३) शक्ति के अविभाग प्रतिच्छेद (अंश) घटते भी हैं और बढ़ते
भी हैं यह वस्तुस्वभाव है । इसलिए वह नित्य - नियत एकरूप दिखाई नहीं देता ।
(४) वह दर्शन, ज्ञान आदि अनेक गुणों से विशेषरूप दिखाई देता
है ।
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(५) कर्म के निमित्त से होनेवाले मोह - राग-द्वेष आदि परिणामों से सहित वह सुख - दुःख रूप दिखाई देता है ।
यह सब अशुद्धद्रव्यार्थिकरूप व्यवहारनय का विषय है । इस दृष्टि से देखा जाय तो यह सब सत्यार्थ है; परन्तु आत्मा का एकस्वभाव इस नय से ग्रहण नहीं होता और एकस्वभाव जाने बिना यथार्थ आत्मा को कैसे जाना जा सकता है ? इसलिए दूसरे नय को उसके प्रतिपक्षी शुद्धद्रव्यार्थिकनय को ग्रहण करके एक असाधारण ज्ञायकमात्र आत्मा का भाव लेकर, उसे शुद्धनय की दृष्टि से सर्व परद्रव्यों से भिन्न, सर्वपर्यायों में एकाकार, हानि-वृद्धि से रहित, विशेषों से रहित और नैमित्तिक भावों से रहित देखा जाये तो सर्व (पाँच) भावों से जो अनेकप्रकारता है, वह अभूतार्थ है, असत्यार्थ है ।"
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यहाँ एक बात विशेष ध्यान देने योग्य है कि यहाँ सर्वपर्यायों से भिन्न शब्द का प्रयोग न करके सर्वपर्यायों में एकाकार शब्द का प्रयोग किया है। उक्त सन्दर्भ में इसीप्रकार के प्रयोग अन्यत्र भी देखने में आते हैं, जो अपना विशेष प्रयोजन रखते हैं । यद्यपि शुद्धनय के विषय में पर्यायें नहीं आती हैं, तथापि पर्यायों की भिन्नता उसप्रकार की नहीं है, जिसप्रकार की परद्रव्यों और उनकी पर्यायों की है। इस सन्दर्भ में द्रव्य-क्षेत्र - काल-भाव के माध्यम से विस्तृत चर्चा ७वीं गाथा में की ही जा चुकी है ।
नर-नारकादि पर्यायों में जो परस्पर भिन्नता भासित होती है, उसपर से दृष्टि हटाकर; उन नर-नारकादि सभी पर्यायों में जो समानरूप से