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समयसार गाथा १४ जो पस्सदि अप्पाणं अबद्धपुढे अणण्णयं णियदं। अविसेसमसंजुत्तं तं सुद्धणयं वियाणीहि ॥१४॥
( हरिगीत ) अबद्धपुट्ठ अनन्य नियत अविशेष जाने आत्म को।
संयोग विरहित भी कहे जो शुद्धनय उसको कहें ॥१४॥ जो नय आत्मा को बन्धरहित और पर के स्पर्श से रहित, अन्यत्वरहित, चलाचलतारहित, विशेषरहित एवं अन्य के संयोग से रहित देखता है, जानता है; हे शिष्य तू उसे शुद्धनय जान।
तात्पर्य यह है कि शुद्धनय से भगवान आत्मा कर्मों से अबद्ध है, परपदार्थों ने इसे छुआ तक नहीं है । वह नर-नारकादि पर्यायों में रहते हुये भी अन्य-अन्य नहीं होता, अनन्य ही रहता है तथा अपने स्वभाव में सदा नियत ही है, समस्त विशेषों में व्याप्त होने पर भी अवशेष ही रहता है तथा रागादि में संयुक्त नहीं होता।
यह गाथा शुद्धनय के विषय को स्पष्ट करनेवाली अत्यन्त महत्त्वपूर्ण गाथा है । इस पर आचार्य अमृतचन्द्र ने जो टीका लिखी है, वह भी अत्यन्त गंभीर है । गाथा और टीका का अर्थ लिखने के उपरान्त विषयवस्तु को स्पष्ट करने के लिए पण्डित जयचन्दजी छाबड़ा ने जो भावार्थ लिखा है, उसका आरम्भिक अंश इसप्रकार है -
"आत्मा पाँच प्रकार से अनेकरूप दिखाई देता है -
(१) अनादिकाल से कर्मपुद्गल के संबंध से बंधा हुआ कर्मपुद्गल के स्पर्शवाला दिखाई देता है।
(२) कर्म के निमित्त से होनेवाली नर-नारकादि पर्यायों में भिन्नभिन्न स्वरूप से दिखाई देता है।