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इसका उत्तर तुम्हारे मत में सर्वथा अद्वैत माना जाता है। यदि सर्वथा अद्वैत माना जाये तो बाह्यवस्तु का अभाव ही हो जाये और ऐसा अभाव तो प्रत्यक्ष विरुद्ध है । हमारे मत में नयविवक्षा है, जो बाह्यवस्तु का लोप नहीं करती। जब शुद्ध अनुभव से विकल्प मिट जाता है, तब आत्मा परमानन्द को प्राप्त होता है । इसलिए अनुभव कराने के लिए यह कहा है कि शुद्ध अनुभव में द्वैत भासित नहीं होता । यदि बाह्यवस्तु का लोप किया जाये तो आत्मा का लोप हो जायेगा और शून्यवाद का प्रसंग आयेगा। इसलिए जैसे तुम कहते हो, उसप्रकार से वस्तुस्वरूप की सिद्धि नहीं हो सकती और वस्तुस्वरूप की यथार्थ श्रद्धा के बिना जो शुद्ध अनुभव किया जाता है, वह भी मिथ्यारूप है । शून्य का प्रसंग होने से तुम्हारा अनुभव भी आकाशकुसुम के अनुभव के समान है ।"
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कलश १०
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इसप्रकार इस तेरहवीं गाथा, उसकी टीका एवं उसमें समागत कलशों में एक बात अत्यन्त स्पष्टरूप से उभर कर सामने आई है कि यद्यपि प्रमाण-नय-निक्षेपों के विषयभूत नवतत्त्वार्थ, द्रव्य-गुण- पर्याय एवं उत्पाद - व्यय - ध्रौव्य भी जानने योग्य हैं, उन्हें जानना उपयोगी भी है, आवश्यक भी है; तथापि सम्यग्दर्शन की प्राप्ति तो शुद्धनय के विषयभूत शुद्धात्मा के आश्रय से ही होती है । अत: अब आगामी गाथा में शुद्धनय का स्वरूप कहेंगे ।
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आगामी गाथा की उत्थानिकारूप में समागत १० वें कलश में भी शुद्धनय के स्वरूप पर प्रकाश डाला गया है । वह कलश मूलत: इसप्रकार है
आत्मस्वभावं
( उपजाति )
परभावभिन्नमापूर्णमाद्यंतविमुक्तमेकम् । विलीनसंकल्पविकल्पजालं प्रकाशयन् शुद्धनयोभ्युदेति ॥ १० ॥
( हरिगीत )
परभाव से जो भिन्न है अर आदि-अन्त विमुक्त है । संकल्प और विकल्प के जंजाल से भी मुक्त है ॥