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कलश ९
उत्तर -नहीं, ऐसी बात नहीं है। वस्तु द्रव्य-गुण-पर्यायरूप है और उत्पाद-व्यय-ध्रौव्यस्वरूप भी है। इस विषय की सम्यक् जानकारी के लिए प्रवचनसार के ज्ञे यतत्त्व प्रज्ञापन के द्रव्यसामान्याधिकार का गहराई से अध्ययन किया जाना चाहिए। ___ कलशटीका में उन्हें जो झूठा कहा है, उसका प्रयोजन भी उनकी सत्ता से इन्कार करना नहीं है, अपितु अनुभव के काल में तत्संबंधी विकल्प उत्पन्न नहीं होते - मात्र इतना बताना ही अभीष्ट है।
इसी बात को स्पष्ट करते हुए कलशटीका में लिखा है -
"भावार्थ इसप्रकार है कि अनादिकाल से जीव अज्ञानी है, जीवस्वरूप को नहीं जानता है। वह जब जीवसत्त्व की प्रतीति आनी चाहे, तब जैसे ही प्रतीति आवे, तैसे ही वस्तुस्वरूप साधा जाता है । सो यह साधना गुण-गुणी ज्ञान द्वारा होती है। दूसरा कोई उपाय नहीं है। इसलिए वस्तुस्वरूप का गुण-गुणी के भेदरूप में विचार करने पर प्रमाण-नय-निक्षेपरूप विकल्प उत्पन्न होते हैं । वे विकल्प प्रथम अवस्था में भले ही हैं, तथापि स्वरूपमात्र अनुभवने पर झूठे हैं।"
उक्त कथन में पाण्डे राजमलजी यह कहना चाहते हैं कि यद्यपि वस्तुस्वरूप समझने के लिए अध्ययन-मनन-चिन्तन करते समय प्रमाण-नय-निक्षेप संबंधी विकल्प उत्पन्न होते हैं और उनकी उस समय उपयोगिता भी है; तथापि अनुभव के काल में तत्संबंधी विकल्प उत्पन्न ही नहीं होते । यहाँ झूठे का अर्थ उत्पन्न ही नहीं होना है। यहाँ उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य, द्रव्य-गुण-पर्याय एवं प्रमाण-नय-निक्षेप के निषेध की बात नहीं है, अपितु अनुभव के काल में तत्संबंधी विकल्पों के उत्पन्न न होने की बात है।
इसीप्रकार आत्मवस्तु तो द्वैताद्वैतस्वरूप है, भेदाभेदस्वरूप है; परन्तु अनुभव के काल में द्वैत भी भासित नहीं होता। इसलिए कहा है कि जब अनुभव के काल में द्वैत भी भासित नहीं होता, तब अन्य विकल्पों की क्या बात करें।