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कलश ८
___खान में पड़ा हुआ स्वर्ण अपनी आरम्भिक अवस्था से ही अनेक अन्य पदार्थों से मिला हुआ रहता है । जब उसे बाहर निकालकर अग्नि में तपाकर शुद्ध करते हैं तो अशुद्धता के जलने से अग्नि की लौ में स्वर्ण के हरे-पीले अनेक रंग दिखाई देते हैं; तथापि वह कहलाता तो स्वर्ण ही है। __ भले ही वह स्वर्ण कहलाये, तथापि स्वर्ण का पारखी सर्राफ उसका मूल्य उतना ही देता है कि जितना उसमें शुद्ध स्वर्ण है। उस अशुद्ध स्वर्ण को कसौटी पर कसकर सर्राफ यह जान लेता है कि इसमें अशुद्धता कितनी है और क्या है तथा शुद्धता कितनी है और क्या है? अशुद्धता की उपेक्षा कर शुद्धता की कीमत देकर उसे प्राप्त कर लेता है। इसीप्रकार अनादि से ही यह आत्मा नवतत्त्वों में छिपा हुआ है। शुद्धनय के प्रयोग से आत्मार्थी यह जान लेता है कि असली आत्मा क्या है और उसमें ही अपनापन स्थापित कर, उसमें ही जमकर, रमकर, मुक्तिमार्ग पर आरूढ़ हो जाता है।
इस बात को कविवर बनारसीदास ने नाटक समयसार में इसप्रकार छन्दोबद्ध किया है -
( इकतीसा सवैया ) जैसैं बनवारी मैं कुधात के मिलाप हेम,
___ नाना भाँति भयौ पे तथापि एक नाम है। कसिकै कसोटी लीकु निरखै सराफ ताहि,
बान के प्रवान करि लेतु देतु दाम है। तैसैं ही अनादि पुद्गलसौं संजोगी जीव,
नव तत्त्वरूप मैं अरूपी महाधाम है। दीसै उनमान सौं उदोतवान ठौर ठौर,
दूसरौ न और एक आतमा ही राम है ॥९॥ जिसप्रकार घरिया में स्वर्ण कुधातुओं के मिलने से अनेक रूप होता दिखाई देता है; पर नाम तो उसका स्वर्ण ही रहता है। अनेक धातुओं