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समयसार अनुशीलन
से मिले हुए उक्त स्वर्ण को सर्राफ ( सोने के व्यापारी) कसौटी पर कसकर देखते हैं और उसमें जितने प्रमाण में शुद्ध स्वर्ण होता है; उतने ही पैसे देते हैं ।
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उसी प्रकार यह जीव अनादिकाल से ही पुद्गल के संयोग में है; इसकारण नवतत्व रूप हो रहा है; परन्तु है तो अरूपी ही। अरूपी होने पर भी स्थान-स्थान पर अनुमान से प्रकाशमान होने वाला और कोई नहीं; एक आत्माराम ही है ।
उक्त संदर्भ में कलश - टीकाकार ने कुछ गहराई से चर्चा की है, जो इसप्रकार है
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" जीववस्तु अनादिकाल से धातु और पाषाण के संयोग के समान कर्मपर्याय से मिली ही चली आ रही है । सो मिली हुई होकर वह रागादि विभाव परिणामों के साथ व्याप्य व्यापक रूप से स्वयं परिणमन कर रही है । वह परिणमन देखा जाय, जीव का स्वरूप न देखा जाय तो जीववस्तु नौ तत्त्वरूप है ऐसा दृष्टि में आता है। ऐसा भी है, सर्वथा झूठ नहीं है; क्योंकि विभावरूप रागादि परिणाम शक्ति जीव में ही है।
वस्तु का विचार करने पर भेदरूप भी वस्तु ही है, वस्तु से भिन्न भेद कुछ वस्तु नहीं है । भावार्थ इसप्रकार है कि सुवर्णमात्र न देखा जाए, बानभेद मात्र देखा जाय तो बानभेद है; सुवर्ण की शक्ति ऐसी भी है । जो बानभेद न देखा जाय, केवल सुवर्णमात्र देखा जाय तो बानभेद झूठा है ।
इसीप्रकार जो शुद्ध जीववस्तु मात्र न देखी जाय, गुण- पर्याय मात्र या उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य मात्र देखा जाय तो गुण-पर्याय हैं तथा उत्पादव्यय - ध्रौव्य हैं; जीववस्तु ऐसी भी है। जो गुण- पर्यायभेद या उत्पादव्यय - ध्रौव्यभेद न देखा जाय, वस्तुमात्र देखी जाय तो समस्त भेद झूठा है । ऐसा अनुभव सम्यकत्व है ।